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Wednesday, April 22, 2009

समाचार पत्र अपना दायित्व पहचानें

चुनाव का मौसम है और प्रत्याशियों का प्रचार प्रसार पूरे ज़ोर पर है । सभी अपने बारे में झूठ सच बढ़ा चढ़ा कर बता रहे हैं । लेकिन वास्तविकता यह है कि आम जनता में से शायद किसी को भी अपने क्षेत्र के सभी प्रत्याशियों के नाम तक नहीं मालूम हैं उनके इतिहास की तो बात ही छोड़ दीजिये । यही कारण है कि जो उम्मीदवार अशिक्षित और ग़रीब मतदाताओं को जाति और धर्म का वास्ता देकर भरमा लेता है या भौतिक वस्तुओं का प्रलोभन देकर अपनी मुट्ठी में कर लेता है मतदाता उसीके
पक्ष में वोट दे देते हैं चाहे फिर वह योग्य हो या ना हो । इंटरनेट पर सब के बारे में सूचना उपलब्ध है लेकिन भारत जैसे देश में कितने घरों में इंटरनेट की सुविधा सुलभ है और जीवन की आपाधापी में किसके पास इतना समय है कि वे साइबर कैफे में जाकर प्रत्याशियों के इतिहास भूगोल की जाँच पड़ताल अपनी जेब ढीली करके हासिल करें । आज के परिदृश्य में सूचना प्राप्त करने के लिये आम जनता के लिये जो सबसे सुलभ और स्थाई माध्यम है वह समाचार पत्र ही हैं । टी. वी. भी एक माध्यम है जिसकी पहुँच काफी विस्तृत है लेकिन उसकी भी सीमायें हैं कि वे समय विशेष पर ही सूचना प्रसारित कर सकते हैं और कोई आवश्यक नहीं कि उस समय सारे दर्शक अपना पसंदीदा कार्यक्रम छोड़ कर प्रत्याशियों की जानकारी जुटाने में दिलचस्पी लें । ऐसे में सभी समाचार पत्रों का दायित्व और बढ़ जाता है कि वे अपने पाठकों तक समस्त आवश्यक और अनिवार्य सूचनायें उपलब्ध करायें क्योंकि समाचार पत्रों में प्रतिदिन जो कुछ छपता है उस पर दिन भर में कभी न कभी तो नज़र पड़ ही जाती है ।
मेरे विचार से सभी प्रमुख समाचार पत्रों में प्रतिदिन नामांकित प्रत्याशियों के बारे में इस प्रकार की सूचनायें प्रकाशित करना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिये -
नाम
आयु
शिक्षा आपराधिक मामलों का विवरण
राजनैतिक इतिहास
सम्पत्ति का विवरण
व्यावसायिक अनुभव
उपलब्धियाँ और विफलतायें
आपराधिक मामलों के विवरण के तहत उन पर कितने मुकदमें चल रहे हैं, उन अपराधों की प्रकृति क्या है, कितने विचाराधीन हैं और कितनों में वे बरी हो चुके हैं इन सबका उल्लेख होना आवश्यक है ।
राजनैतिक इतिहास के विवरण के तहत यह जानकारी होना नितांत आवश्यक है कि इससे पहले वे किस पार्टी के लिये काम कर चुके हैं, कितनी बार दल बदल की राजनीति कर चुके हैं, उनकी निष्ठायें किसी भी पार्टी के लिये कितनी अवधि तक समर्पित रहीं, वे राजनीति में पहले से ही सक्रिय किस परिवार से सम्बद्ध हैं और सार्वजनिक सेवा का उनका इतिहास कितना पुराना है ।
पारदर्शिता की मुहिम के चलते सम्पत्ति का व्यौरा देना तो अब चलन में आ ही चुका है लेकिन जन साधारण के लिये यदि इसको अनिवार्य रूप से व्यक्ति विशेष की समस्त जानकारियों के साथ जोड़ कर लिखा जायेगा तो लोगों को तुलनात्मक अध्ययन करने में आसानी होगी ।
व्यावसायिक अनुभव के उल्लेख से यह विचार करने में आसानी होगी कि संसद में वे किस वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं । जैसे एक वकील कानून के सम्बन्ध में, एक डॉक्टर चिकित्सा के सम्बन्ध में, एक शिक्षक शिक्षा के सम्बन्ध में, एक व्यवसायी उद्योग के सम्बन्ध में, एक कलाकार संस्कृति और कला के सम्बन्ध में, एक जन सेवक आम आदमी के सरोकारों के सम्बन्ध में, एक सैन्य अधिकारी रण कौशल से जुड़ी नीतियों के निर्धारण में महत्वपूर्ण योगदान कर सकते हैं।
उपलब्धियों और विफलताओं के बारे में यह लिखना आवश्यक है कि अब तक वे किन महत्वपूर्ण मुद्दों के लिये प्रयासरत रहे हैं और उनमें कितनी सफलता या असफलता उनके हिस्से में आयी है ।
समाचारपत्रों में जब प्रत्येक प्रत्याशी के बारे में यह जानकारी प्रतिदिन अनिवार्य रूप से छपेगी तो कोई कारण नहीं है कि मतदाता स्वविवेक का प्रयोग किये बिना भेड़चाल की तरह किसी ऐसे प्रत्याशी के पक्ष में अपना वोट डाल आयें जिसने उनको भाँति भाँति के प्रलोभन देकर प्रभावित कर लिया हो, या वह किसी जाति विशेष का प्रतिनिधि हो ।
यह भी आवश्यक है कि यह सारी सूचना पूर्णत: विशुद्ध सूचना ही हो उसमें किसी नेता या पार्टी की सोच, राय, धारणा या छवि का तड़का न लगा हो । मेरे विचार से यदि इस दिशा में ठोस कदम उठाये जायेंगे तो आम जनता को अपने विवेक का प्रयोग करने का सुअवसर अवश्य मिलेगा और तब ही शायद सर्वोत्तम प्रत्याशी की जीत सम्भव हो पायेगी जिसके लिये हम सब कृत संकल्प हैं । जय भारत !
साधना वैद

Wednesday, April 15, 2009

दिक्भ्रमित मतदाता

मतदान का समय नज़दीक आ रहा है । चारों ओर से मतदाताओं पर दबाव बनाया जा रहा है कि वे अपने मताधिकार का प्रयोग अवश्य करें । इस बार चूक गये तो अगले पाँच साल तक हाथ ही मलते रह जायेंगे इसलिये सही प्रत्याशी को वोट दें, सोच समझ कर वोट दें, जाँच परख कर वोट दें, यह ज़रूर सुनिश्चित कर लें कि प्रत्याशी का कोई आपराधिक अतीत ना हो, वह सुशिक्षित हो, चरित्रवान हो, देशहित के लिये निष्ठावान हो, जनता का सच्चा सेवक हो और ग़रीबों के हितों का हिमायती हो, आम आदमी की समस्याओं और सरोकारों का जानकार हो और संसद में उनके पक्ष में बुलन्द आवाज़ में अपनी बात मनवाने का दम खम रखता हो ।
बात सोलह आना सही है लेकिन असली चिंता यही है कि इन कसौटियों पर किसी प्रत्याशी को परखने के लिये मतदाता के पास मापदण्ड क्या है ? वह कैसे फैसला करे कि यह प्रत्याशी सही है और वह नहीं क्योंकि जिन प्रत्याशियों को चुनावी मैदान मे उतारा जाता है उनमें से चन्द गिने चुने लोगों के ही नाम और काम से लोग परिचित होते हैं । बाकी सब तो पहली ही बार पार्टी के नाम पर सत्ता का स्वाद चखने के इरादे से चुनावी दंगल में कूद पड़ते हैं या निर्दलीय उम्मीदवार की हैसियत से अपना ढोल बजाने लगते हैं और जनता के दरबार में वोटों के तलबगार बन जाते हैं । ऐसे में मतदाता क्या देखें ? यह कि कौन सा प्रत्याशी कितने भव्य व्यक्तित्व का स्वामी है, या फिर कौन विनम्रता के प्रदर्शन में कितना नीचे झुक कर प्रणाम करता है, या फिर कौन फिल्मों मे या टी वी धारावाहिकों में ग़रीबों का सच्चा पैरोकार बन कर लोकप्रिय हुआ है, या फिर किसके बाप दादा पीढ़ियों से राजनीति के अखाड़े के दाव पेंचों के अच्छे जानकार रहे हैं, या फिर कौन चुनाव प्रचार के दौरान अपनी जन सभाओं में बड़े बड़े नेताओं और अभिनेताओं का बुलाने का दम खम रखता है, या फिर कौन क्षेत्र विशेष की लोक भाषा में हँसी मज़ाक कर लोगों का दिल जीतने में सफल हो जाता है । या फिर पार्टी विशेष के वक़्ती घोषणा पत्र के आधार पर ही प्रत्याशी का चुनाव करना चाहिये जिसका क्षणिक अस्तित्व केवल चुनाव के नतीजों तक ही होता है और जिनके सारे वायदे और घोषणायें चुनाव के बाद कपूर की तरह हवा में विलीन हो जाते हैं । आखिर किस आधार पर चुनें मतदाता अपना नेता ?
सारे मतदाता इसी संशय और असमंजस की स्थिति में रहते हैं और शायद मतदान के प्रति लोगों में जो उदासीनता आई है उसका एक सबसे बड़ा कारण यही है कि वे अपने क्षेत्र के अधिकतर प्रत्याशियों के बारे में कुछ भी नहीं जानते और जिनके बारे में जानते हैं उन्हें वोट देना नहीं चाहते । वे किसी पर भी भरोसा नहीं कर सकते और चरम हताशा की स्थिति में किसी भी अनजान प्रत्याशी को वोट देकर किसी भी तरह के ग़लत चुनाव की ज़िम्मेदारी से बचना चाहते हैं ।
हमें आगे आकर इन दोषपूर्ण परम्पराओं में बदलाव लाने की मुहिम को गति देना चाहिये । चुनाव के चंद दिन पूर्व प्रत्याशियों की घोषणा किये जाने का तरीका ही ग़लत है । क़ायदे से चुनाव के तुरंत बाद ही अगले चुनाव के उम्मीदवार की घोषणा हो जानी चाहिये और अगले पाँच साल तक उसे लगातार जनता के सम्पर्क में रहना चाहिये । प्रत्येक भावी उम्मीदवार को जन साधारण की समस्याओं और सरोकारों को सुनने और समझने में समर्पित भाव से जुट जाना चाहिये । सभी पार्टीज़ के प्रत्याशी जब प्रतिस्पर्धा की भावना के साथ आम आदमी के जीवन की जटिलताओं को सुलझाने की दिशा में प्रयत्नशील हो जायेंगे तब देखियेगा विकास की गति कितनी तीव्र होगी और आम आदमी का जीवन कितना खुशहाल हो जायेगा । तब किसी प्रत्याशी के प्रति जनता के मन में सन्देह का भाव नहीं होगा । हर उम्मीदवार का काम बोलेगा और जो अच्छा काम करेगा उसे जिताने के लिये जनता खुद उत्साहित होकर आगे बढ़ कर वोट डालने आयेगी । हमेशा की तरह खींच खींच कर मतदाताओं को मतदान केंद्र तक लाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी । इस प्रक्रिया से अकर्मण्य और अवसरवादी लोगों की दाल नहीं गल पायेगी । सारे गाँवों और शहरों की दशा सुधर जायेगी और आम आदमी बिजली, पानी, साफ सफाई इत्यादि की जिन समस्याओं से हर वक़्त जूझता रहता है उनके समाधान अपने आप निकलते चले जायेंगे । पाँच साल बीतने के पश्चात चुनाव के परिणाम के रूप में सबको अपनी अपनी मेहनत का फल मिल जायेगा । अगर ऐसा हो जाये तो भारत विकासशील देशों की सूची से निकल कर सबसे विकसित देश होने के गौरव से सम्मानित हो सकेगा और हम भारतवासी भी गर्व से अपना सिर उठा कर कह सकेंगे जय भारत जय हिन्दोस्तान !

साधना वैद

Monday, April 13, 2009

बाल श्रमिक ! सिक्के का दूसरा पहलू

बच्चे देश का भविष्य हैं, आने वाले वक़्तों में भारत के कर्णधार हैं और बदलते खुशहाल भारत की बहुत सुन्दर सी तस्वीर हैं ऐसे जुमले बाल दिवस पर या श्रमिक दिवस पर बहुत सुनने को मिल जाते हैं लेकिन यथार्थ के धरातल पर जब देश के इन्हीं ‘कर्णधारों’ को भूख से बिलखते और चोरी उठाईगीरी जैसे अपराधों में लिप्त पाते हैं तो ऐसी बातें अपना महत्व और विश्वसनीयता खोती हुई प्रतीत होती हैं ।
अपने दो दिन पहले के अनुभव से पाठकों को अवगत कराना चाहती हूँ । मेरे घर में कुछ निर्माण कार्य चल रहा है । सुबह नौ बजे से शाम पाँच बजे तक श्रमिक काम करते हैं । दिन में तीन बजे के करीब एक श्रमिक थक कर बैठ गया । क़ारण पूछा तो बोला पेट में दर्द हो रहा है । मैने दवा देनी चाही तो उसने बताया कि सुबह से खाना नहीं खाया है सिर्फ पानी पीकर काम कर रहा है । मुझे दुख हुआ । सबसे पहले तो उसको भरपेट खाना खिलाया फिर कारण पूछा तो उसने बताया कि घर में आटा ही नहीं था इसलिये खाना नहीं लाया था । मेरा दिल करुणा से भर गया । पूछने पर उसने बताया कि घर में एक बीमार पिता हैं , बूढी माँ है, एक बहन है शादी के लायक और दो छोटे भाई हैं । घर में आटा ना होने से सभी का उपवास हो गया था । मैंने कहा भाइयों को भी क्यों नहीं ले आते हो काम पर साथ में ? बोला कैसे लायें दोनों चौदह् बरस से छोटे हैं साथ में ले आवें तो टोले वाले शिकायत की धमकी देते हैं क्योंकि छोटे बच्चों से काम कराना जुर्म है । उसके जवाब ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया । क़्या यही भूखी, लाचार और दुर्बल पीढी देश की बागडोर अपने कमज़ोर हाथों में थामने वाली है ? क़ुछ विशिष्ट दिवसों पर बस्तियों में मिठाई वितरत कर देने से या पाँच सितारा होटलों के वातानुकूलित सभागारों में सम्मेलन और गोष्ठियाँ आयोजित कर बड़ी-बड़ी घोषणायें करने से हालात नहीं बदलने वाले हैं । उसके लिये समस्याओं की तह में जाकर उनके निवारण के लिये प्रयत्न करने होंगे तभी बदलाव की कोई उम्मीद दिखाई देगी । आज भी देश का बड़ा प्रतिशत ग़रीबी की रेखा के नीचे गुज़र बसर करता है । आज भी उनके यहाँ दो वक़्त की रोटी जुटाने की समस्या विकराल रूप से उन्हें जकड़े हुए है ऐसे में एक व्यक्ति की कमाई से सबका पेट भरना असम्भव है वह भी तब जब साल में कई दिन उसे बेरोज़गार घर में बैठना पड़्ता है । इतनी मँहगाई के समय में अच्छे अच्छे लोगों को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है तो ग़रीबों का तो भगवान ही मालिक है । पेट में जब भूख की आग सुलग रही हो तो आदर्शों की बातें बड़ी बेमानी लगती हैं । घर के वयस्क सदस्य काम की तलाश में निकल जाते हैं और नबालिग भाई बहन ऐसे ही गली मौहल्लों में निरुद्देश्य लवारिस भटकते रहते है । और अगर ग़लत सोहबत में पड़ जाते हैं तो चोरी, जुआ, लड़ाई झगड़ों में लिप्त हो अपना बचपन बिगाड़ लेते हैं जिसकी सम्भावनायें निश्चित रूप से कहीं अधिक हैं । बच्चे स्कूल गये या नहीं, उन्हें कुछ खाने को मिला या नहीं इसकी सुध लेने की फुर्सत किसी के पास नहीं है । ऐसे में इन बच्चों का भविष्य पूरी तरह से अंधकारमय दिखाई देता है । अगर ये किशोर बच्चे अपने माता पिता के साथ उनके कार्य स्थल पर जाकर उनके साथ काम करके उनका हाथ बटाते हैं और खुद भी कुछ कमा कर घर की आमदनी के संवर्धन में कुछ योगदान करते हैं तो उसमें हर्ज ही क्या है ? यही वह आयु होती है जब बच्चे एकाग्र चित्त से किसी हुनर को मन लगा कर सीख सकते हैं । समाज के अन्य वर्गों के बच्चे क्या इस आयु में पढ़ाई के अलावा अपनी रुचि के अनुसार विविध प्रकार की कलायें नहीं सीखते ? फिर अगर ये बच्चे अपने माता पिता के साथ कारखानों में जाकर उनकी निगरानी में रह कर उंनकी कारीगरी की बारीकियों को सीखते हैं तो क्या यह ग़लत है ? जब तक वे वयस्क होंगे अपने काम में पूरी तरह से दक्ष हो जायेंगे जो निश्चित रूप से यह उनके लिये फायदे का सौदा ही होगा । बच्चे श्रम की महिमा को समझेंगे और आत्मनिर्भरता का मधुर फल चख सकेंगे । बच्चे जब तक छोटे होते हैं तभी तक वे एकाग्रता से कुछ सीख सकते हैं । एक बार ध्यान भटक गया तो फिर कुछ सीखना असम्भव हो जाता है । कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर । जो बच्चे ना तो स्कूल में जाकर पढ़ाई कर रहे है और ना ही किसी किस्म का व्यावसायिक प्रशिक्षण ले रहे हैं उनका बचपन तो बर्बाद ही हो रहा है ना ? मैं बच्चों को काम के बोझ के तले पिसते कतई देखना नहीं चाहती लेकिन दिशाहीन भटकते बचपन को प्रतिदिन देखना भी उतना ही कष्टप्रद है । मेरा सामाजिक संस्थाओं से अनुरोध है कि वे इस विकराल समस्या का उचित निदान ढूढें । साल में दो चार दिन बस्तियों में जाकर बच्चों की सुध लेने से काम नहीं चलेगा । 365 दिन के साल में बाकी के 360 दिन वे क्या करते है, क्या खाते हैं, कैसी सोहबत में रहते हैं, उनका किस तरह का विकास हो रहा है, किस तरह की गतिविधियों में वे संलग्न रहते है और उनके परिवार की आर्थिक स्थिति क्या इतनी मजबूत है कि वह इन बच्चों का लालन पालन बिना किसी अतिरिक्त आमदनी के सुचारू रूप से कर सकते हैं इन बातों पर भी विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है । क्या समाजसेवी संस्थायें ईमानदारी से यह कर्तव्य निभाती हैं या उनकी निष्ठा सिर्फ साल के दो चार दिनों तक ही सीमित होती है ? मेरे विचार से यदि किसी की आर्थिक स्थिति अनुमति नहीं देती है तो बच्चों को काम पर जाने देने में कोई हर्ज नहीं है । ज़रूरत इस बात की है कि उनके लिये कार्यस्थल पर काम करने की शर्तें और स्थितियाँ अनुकूल और आसान हों, वहाँ सभी तरह की स्वास्थ्य सुविधायें उपलब्ध हों, खाने पीने का उचित प्रबन्ध हो, उनसे उनकी क्षमता से अधिक काम ना लिया जाये और उनके लिये कुछ समय खेल कूद और मनोरंजन के लिये भी सुनिश्चित किया जाये । यदि इन बातों पर ध्यान दिया जायेगा तो निश्चित ही यह समाज अपराध मुक्त हो सकेगा और समाज का हर सदस्य आत्मसम्मान और आत्मविश्वास से भरा होगा । तब ही हम निश्चिंत होकर देश की बागडोर इस पीढ़ी को सौंप सकेंगे ।


साधना वैद

Friday, April 10, 2009

अन्यायपूर्ण न्याय प्रणाली

हमारी न्याय व्यवस्था का पहला उद्देश्य है कि चाहे कोई गुनहगार भले ही छूट जाये लेकिन किसी बेगुनाह को दण्ड नहीं मिलना चाहिये । निश्चित ही यह करुणा और मानवता से परिपूर्ण एक बहुत ही पावन भावना है । लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हो पाता है ? क्या इस बात को आधिकारिक तौर पर प्रमाणित किया जा सकता है कि आज भारतीय जेलों में जितने भी कैदी हैं उन पर लगे सारे आरोप बाक़ायदा सिद्ध हो चुके हैं और जो बाइज़्ज़त बरी होकर बेखौफ बाहर घूम रहे हैं वे वास्तव में निरपराध हैं ?
हमारी न्याय व्यवस्था तो इतनी लचर और लाचार है कि जिन लोगों के अपराध सिद्ध हो चुके हैं और जिनको देश की सर्वोच्च अदालत से दण्डित भी किया जा चुका है उनको भी सज़ा देने से डरती है । संसद पर हमला करने वाले अपराधियों को क्या आज तक सज़ा मिल पाई है ? कुछ हमारी न्याय प्रक्रिया धीमी है कुछ सरकार की नीतियाँ दोषपूर्ण हैं जो न्याय प्रक्रिया को बाधित करने के लिये किसी न किसी तरह से आड़े आ जाती हैं ।
अंग्रेज़ी में एक कहावत है Justice delayed is justice denied . अगर यह सत्य है तो हमारे यहाँ तो शायद न्याय कभी हो ही नहीं पाता । एक तो मुकदमे ही अदालतों में सालों चलते हैं दूसरे जब तक फैसले की घड़ी आती है तब तक कई गवाह , यहाँ तक कि चश्मदीद गवाह तक अपने बयानों से इस तरह पलट जाते हैं कि वास्तविक अपराधी सज़ा से या तो साफ साफ बच जाता है या बहुत ही मामूली सी सज़ा पाकर सामने वाले का मुहँ चिढ़ाता सा लगता है । ऐसे में क्या हम सीना ठोक कर यह कह सकते हैं कि फैसला सच में न्यायपूर्ण हुआ है । ऐसे में समाज में न्याय प्रणाली के प्रति असंतोष और आक्रोश की भावना जन्म लेती है । लोगों में निराशा और अवसाद घर कर जाता है और वक़्त आने पर ऐसे चोट खाये लोग खुद अपने हाथों में कानून लेने से पीछे नहीं हटते । गृह मंत्री श्री चिन्दम्बरम पर पत्रकार वार्ता में पत्रकार द्वारा जूता फेंके जाने का प्रसंग इसका ताज़ातरीन उदाहरण है । इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद जिस तरह से उस पत्रकार को आम जनता का समर्थन और शाबाशी मिली वह कहीं न कहीं न्याय व्यवस्था के प्रति लोगों में पनपते अविश्वास और असंतोष को प्रकट करता है ।
भयमुक्त और अपराध मुक्त समाज की परिकल्पना को यदि साकार रूप देना चाहते हैं तो सबसे पहले मुकदमों के त्वरित निपटान की दिशा में ठोस कदम उठाये जाने की सख्त ज़रूरत है । आये दिन समाचार पत्र दिल दहला देने वाली लोमहर्षक घटनाओं के समाचारों से भरे होते हैं । पाठकों के दिल दिमाग़ पर उनका गहरा असर होता है । लोग प्रतिदिन कौतुहल और उत्सुकता से उनकी जाँच की प्रगति जानने के लिये अख़बारों और टी. वी. के समाचार चैनलों से चिपके रहते हैं लेकिन पुलिस और अन्य जाँच एजेंसियों की जाँच प्रक्रिया इतनी धीमी और दोषपूर्ण होती है कि लम्बा वक़्त गुज़र जाने पर भी उसमें कोई प्रगति नज़र नहीं आती । धीरे धीरे लोगों के दिमाग से उसका प्रभाव घटने लगता है । तब तक कोई नयी घटना घट जाती है और लोगों का ध्यान उस तरफ भटक जाता है । फिर जैसे तैसे मुकदमा अदालत में पहुँच भी जाये तो फैसला आने में इतना समय लग जाता है कि लोगों के दिमाग से उसका असर पूरी तरह से समाप्त हो जाता है और अपराधियों का हौसला बढ जाता है । आम आदमी समाज में भयमुक्त हो या न हो लेकिन यह तो निश्चित है कि अपराधी पूर्णत: भयमुक्त हैं और आये दिन अपने क्रूर और खतरनाक इरादों को अंजाम देते रहते हैं । य़दि हमारी न्याय प्रणाली त्वरित और सख्त हो तो समाज में इसका अच्छा संदेश जायेगा और अपराधियों के हौसलों पर लगाम लगेगी । गिरगिट की तरह बयान बदलने वाले गवाहों पर भी अंकुश लगेगा और अपराधियों को सबूत और साक्ष्यों को मिटाने और गवाहों को खरीद कर , उन्हें लालच देकर मुकदमे का स्वरूप बदलने का वक़्त भी नहीं मिलेगा । कहते हैं जब लोहा गर्म हो तब ही हथौड़ा मारना चाहिये । समाज में अनुशासन और मूल्यों की स्थापना के लिये कुछ तो कड़े कदम उठाने ही होंगे । त्वरित और कठोर दण्ड के प्रावधान से अपराधियों की पैदावार पर अंकुश लगेगा और शौकिया अपराध करने वालों की हिम्मत टूट जायेगी ।
इसके लिये आवश्यक है कि न्यायालयों में सालों से चल रहे चोरी या इसी तरह के छोटे मोटे अपराधों वाले विचाराधीन मुकदमों को या तो बन्द कर दिया जाये या जल्दी से जल्दी निपटाया जाये । ऐसे मुकदमों के निपटान के लिये समय सीमा निर्धारित कर दी जाये और भविष्य में और तारीखें ना दी जायें । न्यायाधीशों की वेतनवृद्धि और पदोन्नति उनके द्वारा निपटाये गये मुकदमों के आधार पर तय की जाये । अनावश्यक और अनुपयोगी कानूनों को निरस्त किया जाये ताकि अदालतों में मुकदमों की संख्या को नियंत्रित किया जा सके और उनके कारण व्यवस्था में व्याप्त पुलिस और वकीलों के मकड़्जाल से आम आदमी को निजात मिल सके । न्यायालयों की संख्या बढ़ायी जाये और क्षुद्र प्रकृति के मुकदमों का निपटान निचली अदालतों में ही हो जाये । अपील का प्रावधान सिर्फ गम्भीर प्रकृति के मुकदमों के लिये ही हो ।
इसी तरह से कुछ कदम यदि उठाये जायेंगे तो निश्चित रूप से समाज में बदलाव की भीनी भीनी बयार बहने लगेगी और आम आदमी चैन की साँस ले सकेगा।

साधना वैद

Tuesday, April 7, 2009

कैसे हों हमारे सांसद !

हम लोगों के सौभाग्य से चुनाव का सुअवसर आ गया है और यही सही वक़्त है जब हम अपनी कल्पना के अनुसार सर्वथा योग्य और सक्षम प्रत्याशी को जिता कर भारतीय लोकतंत्र के हितों की रक्षा करने की मुहिम में अपना सक्रिय योगदान कर सकते हैं । इस समय यह सुनिश्चित करना बहुत ज़रूरी है कि जिन लोगों को हम वोट देने जा रहे हैं उनका पिछला रिकॉर्ड कैसा है, क्या वे आपराधिक छवि वाले नेता हैं, सामाजिक सरोकारों के प्रति वे कितने प्रतिबद्ध हैं और अपनी बात को दम खम के साथ मनवाने की योग्यता रखते हैं या नहीं । मात्र सज्जन और शिक्षित होना ही वोट जीतने के लिये काफी नहीं है । प्रत्याशी का जुझारू होना परम आवश्यक है वरना वह संसद में मिमियाता ही रह जायेगा और कोई उसकी बात को सुन ही नहीं सकेगा । सर्वोपरि यह भी सुनिश्चित करना बहुत ज़रूरी है कि सत्ता में आने के बाद उसका लक्ष्य जनता की सेवा करना होगा या उसके दायरे में सिर्फ उसका अपना परिवार और नाते रिश्तेदार ही होंगे ।
संसद में केवल हल्ला गुल्ला करने वाले और मेज़ कुर्सी माइक फेंकने वाले लोगों के लिये कोई जगह नहीं होनी चाहिये जो विश्व बिरादरी में हम सब के लिये शर्मिंदगी का कारण बनते हैं । वहाँ ज़रूरत है ऐसे लोगों की जो बिल्कुल साफ और स्पष्ट दृष्टिकोण रखते हों और जिनकी आस्थायें और मूल्य दल बदल के साथ ही बदलने वाले ना हों । संसद में समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व होना बह्त ज़रूरी है ताकि वे अपने वर्ग के हितों की रक्षा कर सकें और उसकी हिमायत में वज़न के साथ अपनी बात रख सकें । इसके लिये प्रखर बुद्धिजीवियों, समाजसेवियों और पैनी नज़र रखने वाले ईमानदार आलोचकों की आवश्यक्ता है जो संसद में पास होने वाले ग़लत निर्णयों का डट कर विरोध कर सकें । संसद में हमारे खेतिहर किसान भाइयों की पैरवी के लिये ग्रामीण क्षेत्र से जुड़े प्रतिनिधियों, व्यापारियों के हितों की रक्षा के लिये उद्योग जगत से जुड़े उद्यमियों, बच्चों के हितों के लिये प्रतिबद्ध शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों, सैन्य गतिविधियों पर पैनी नज़र रखने के लिये सेना से जुड़े रिटायर्ड सैन्य अधिकारियों, जनता के हित में पास होने वाले कानूनों के कड़े विश्लेषण के लिये सुयोग्य कानूनविदों, जनता पर थोपे जाने वाले करों की उचित समीक्षा के लिये अनुभवी अर्थशास्त्रियों तथा कलाकारों से जुड़ी समस्याओं के निवारण के लिये सुयोग्य कलाकारों का प्रतिनिधित्व होना बहुत ज़रूरी है । मतदाताओं से मेरा अनुरोध है कि अपना अनमोल वोट देने से पहले वे यह अवश्य सुनिश्चित कर लें कि वे जिस प्रत्याशी को वोट देने जा रहे हैं वह उपरोक्त वर्णित किसी भी कसौटी पर खरा उतर रहा है या नहीं । यह अवसर इस बार हाथ से निकल गया तो फिर अगले पाँच साल तक हाथ मलने के सिवा और कुछ बाकी नहीं रहेगा । वोट ना देने या खड़े हुए किसी भी प्रत्याशी के प्रति अपनी असहमति को व्यक्त करने का मतलब है कि आप अपने अधिकारों को व्यर्थ कर रहे हैं । आपके इस निर्णय से चुनाव प्रक्रिया पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा । कोई न कोई तो चुन कर आ ही जायेगा फिर आपके पास अगले पाँच साल तक उसीको अपने सर माथे पर बिठाने के अलावा कोई चारा न होगा और फिर नैतिक रूप से अपने नेता की किसी भी तरह की आलोचना करने का अधिकार भी आपके पास नहीं होना चाहिये क्योंकि उसे जिताने मे आपकी भूमिका भी यथेष्ट रूप से महत्वपूर्ण ही होगी भले ही वह प्रत्यक्ष ना होकर परोक्ष ही हो ।

साधना वैद्

Sunday, April 5, 2009

इन्हें भी सम्मान से जीने दें

इसे सामाजिक न्याय व्यवस्था की विडम्बना कहा जाये या विद्रूप कि जिन वृद्धजनों के समाज और परिवार में सम्मान और स्थान के प्रति तमाम समाजसेवी संस्थायें और मानवाधिकार आयोग बडे सजग और सचेत रहने का दावा करते हैं और समय – समय उनके हित के प्रति पर अपनी चिंता और असंतोष का उद्घाटन भी करते रहते हैं उन्हींको पराश्रय और असम्मान की स्थितियों में जब ढकेला जाता है तब सब मौन साधे मूक दर्शक की भूमिका निभाते दिखाई देते हैं।
ऐसी धारणा है कि साठ वर्ष की अवस्था आने के बाद व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक शक्तियाँ क्षीण हो जाती हैं और वह शारीरिक श्रम के काम के लिये अक्षम हो जाता है और यदि वह प्रबन्धन के कार्य से जुड़ा है तो वह सही निर्णय ले पाने में असमर्थ हो जाता है इसीलिये उसे सेवा निवृत कर दिये जाने का प्रावधान है । अगर यह सच है तो संसद में बैठे वयोवृद्ध नेताओं की आयु तालिका पर कभी किसीने विचार क्यों नहीं किया ? उन पर कोई आयु सीमा क्यों लागू नहीं होती ? क़्या वे बढती उम्र के साथ शरीर और मस्तिष्क पर होने वाले दुष्प्रभावों से परे हैं ? क़्या उनकी सही निर्णय लेने की क्षमता बढती उम्र के साथ प्रभावित नहीं होती ? फिर किस विशेषाधिकार के तहत वे इतने विशाल देश के करोडो लोगों के भविष्य का न्यायोचित् निर्धारण अपनी जर्जर मानसिकता के साथ करने के लिये सक्षम माने जाते हैं ? य़दि उन्हें बढ़्ती आयु के दुष्प्रभावों से कोई हानि नहीं होती तो अन्य लोगों के साथ यह भेदभाव क्यो किया जाता है ?अपवादों को छोड़ दिया जाये तो साठ वर्ष की अवस्था प्राप्त करने के बाद व्यक्ति अधिक अनुभवी, परिपक्व और गम्भीर हो जाता है और उसके निर्णय अधिक न्यायपूर्ण और समझदारी से भरे होते हैं । ऐसी स्थिति में उसे उसके सभी अधिकारों और सम्मान से वंचित करके सेवा निवृत कर दिया जाता है जो सर्वथा अनुचित है । घर में उसकी स्थिति और भी शोचनीय हो जाती है । अचानक सभी अधिकारों से वंचित, शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से क्लांत वह चिड़चिड़ा हो उठता है । घर के किसी भी मामले में उसकी टीकाटिप्पणी को परिवार के अन्य सदस्य सहन नहीं कर पाते और वह एक अंनचाहे व्यक्ति की तरह घर के किसी एक कोने में उपेक्षा, अवहेलना, असम्मान और अपमान का जीवन जीने के लिये विवश हो जाता है । उसकी इस दयनीय दशा के लिये हमारी यह दोषपूर्ण व्यवस्था ही जिम्मेदार है । साठवाँ जन्मदिन मनाने के तुरंत बाद एक ही दिन में कैसे किसीकी क्षमताओं को शून्य करके आँका जा सकता है ?
वृद्ध जन भी सम्मान और स्वाभिमान के साथ पूर्णत: आत्मनिर्भर हों और उन्हें किसी तरह की बैसाखियों का सहारा ना लेना पडे इसके लिये आवश्यक है कि वे आर्थिक रूप से भी सक्षम हों । इसके लिये ऐसे रोज़गार दफ्तर खोलने की आवश्यक्ता है जहां साठ वर्ष से ऊपर की अवस्था के लोगों के लिये रोज़गार की सुविधायें उपलब्ध करायी जा सकें । प्राइवेट कम्पनियों और फैक्ट्रियों में बुज़ुर्ग आवेदकों के लिये विशिष्ट नियुक्तियों की व्यवस्था का प्रावधान सुनिश्चित किया जाये । इस बात पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि उनको उनकी क्षमताओं के अनुरूप ही काम सौपे जायें । आर्थिक रूप से सक्षम होने पर परिवार में भी बुज़ुर्गों को यथोचित सम्मान मिलेगा और उनकी समजिक स्थिति भी सुदृढ होगी । यह आज के समय की माँग है कि समाज में व्याप्त इन विसंगतियों की ओर प्रबुद्ध लोगों का ध्यान आकर्षित किया जाये और वृद्ध जनों के हित के लिये ठोस और कारगर कदम उठाये जायें । तभी एक स्वस्थ समाज की स्थापना का स्वप्न साकार हो सकेगा जहां कोई किसी का मोहताज नहीं होगा ।
साधना वैद