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Friday, December 25, 2009

उलझन

अभी तक समझ नहीं पाई कि
भोर की हर उजली किरन के दर्पण में
मैं तुम्हारे ही चेहरे का
प्रतिबिम्ब क्यों ढूँढने लगती हूँ ?
हवा के हर सहलाते दुलराते
स्नेहिल स्पर्श में
मुझे तुम्हारी उँगलियों की
चिर परिचित सी छुअन
क्यों याद आ जाती है ?
सम्पूर्ण घाटी में गूँजती
दिग्दिगंत में व्याप्त
हर पुकार की
व्याकुल प्रतिध्वनि में
मुझे तुम्हारी उतावली आवाज़ के
आवेगपूर्ण आकुल स्वर
क्यों याद आ जाते हैं ?
यह जानते हुए भी कि
ऊँचाई से फर्श पर गिर कर
चूर-चूर हुआ शीशे का बुत
क्या कभी पहले सा जुड़ पाता है ?
धनुष की प्रत्यंचा से छूटा तीर
लाख चाहने पर भी लौट कर
क्या कभी विपरीत दिशा मे मुड़ पाता है ?
वर्षों पिंजरे में बंद रहने के बाद
रुग्ण पंखों वाला असहाय पंछी
दूर आसमान में अन्य पंछियों की तरह
क्या कभी वांछित ऊँचाई पर उड़ पाता है ?
मेरा यह पागल मन
ना जाने क्यूँ
उलझनों के इस भँवर जाल में
आज भी अटका हुआ है ।


साधना वैद

Saturday, December 19, 2009

हाय तुम्हारी यही कहानी ( अंतिम भाग )

( गतांक से आगे )
नीरा का मन अपने माता-पिता की उदारता पर अभिमान से भर उठा । अगले दिन की सुबह उसे और दिनों की अपेक्षा अधिक उजली लगी थी । छ: मास की दौड़ धूप और विज्ञापनों के अध्ययन के बाद माँ बाबूजी ने विश्वास में सौम्या के लिये उपयुक्त वर की सम्भावनायें तलाशने की कोशिश की थी । उसकी पहली पत्नी का स्वर्गवास प्रसव के समय हो गया था । छोटा बच्चा अपने नाना-नानी के पास रहता था और घर में माता-पिता के अलावा एक छोटा भाई और था । सौम्या के विरोध के बावजूद भी माँ बाबूजी ने कलेजे पर पत्थर रख कर सौम्या का कन्यादान कर दिया इस आशा में कि वे उसके लिए अत्यंत सुन्दर, सुखद एवं मधुर दाम्पत्य जीवन के प्रवेश द्वार की कुण्डी खोल रहे हैं । लेकिन उनके सत्प्रयासों और निष्काम प्रत्याशाओं की परिणति ऐसी होगी यह तो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा । विधि का यह कैसा विद्रूप था । नीरा का मन सुलग रहा था ।
सौम्या चाय लेकर आ गयी थी । “ भाभी तुमने झूठ क्यों लिखा था चिट्ठियों में ?”
नीरा का स्वर रुँधा हुआ था । सौम्या अब तक संयत हो चुकी थी । “ सच कैसे लिखती नीरा । माँ बाबूजी ने जिस आस और विश्वास के सहारे मुझे इन लोगों को सौंपा था वह तुम्हारे भैया की चिता की नींव पर बना था । उस विश्वास को कैसे तोड़ देती ! इस घर में माँ जी की बिल्कुल इच्छा नहीं थी कि मैं यहाँ आऊँ । वे मुझे मनहूस समझती हैं, अच्छा व्यवहार तो उनका पहले भी नहीं था पर जबसे विमल का एक्सीडेंट हुआ है वे मुझे फूटी आँख देखना नहीं चाहतीं । “ ”और विश्वास भैया ? क्या वो भी आपका साथ नहीं देते ? आपका पक्ष नहीं लेते ?” नीरा का स्वर चिंतित था ।
“ पहले तो वो तटस्थ रहते थे लेकिन अब उनका भी रुख बदल गया है । बात-बात पर बिगड़ जाते हैं । घर में इतना तनाव रहता है कि वो भी हर समय खीजे से रहते हैं । सच तो यह है नीरा कि हमारा यह रिश्ता एक समझौता भर है । शायद हम दोनों ही ना तो एक दूसरे को स्वीकार कर पा रहे हैं और ना ही इस थोपे गये रिश्ते से बाहर निकलने का कोई मार्ग ढूँढ पा रहे हैं । मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा नीरा कि मैं क्या करूँ । मेरी तो यही इच्छा थी कि तुम लोगों के स्नेह और सहानुभूति का सम्बल लेकर अपना सारा जीवन माँ बाबूजी की सेवा में वहीं समर्पित कर देती । तुम्हारे भैया ने भी चलते समय मुझसे यही वचन लिया था कि मैं उनके जाने के बाद माँ बाबूजी और तुम लोगों का जी जान से ध्यान रखूँगी । ‘ सौम्या फिर रो पड़ी थी शायद सुनील को याद करके । इस बार नीरा की आँखें भी बह चली थीं ।
“ फिर यह सब उल्टा-पुल्टा कैसे हो गया भाभी ? आपने माँ बाबूजी का विरोध क्यों नहीं किया ? “ “ कैसे करती नीरा ? किस अधिकार से अपना बोझ जीवन भर के लिये उनके बूढ़े कन्धों पर डाल देती । मेरे साथ दुर्भाग्य की जो आँधी उनके जीवन में भी आयी थी वह अगर मेरे बाहर निकल जाने से थम सकती थी तो अच्छा ही था ना । यही सोच कर मैंने इस निष्कासन को उनकी मुक्ति का उपाय मान कर स्वीकार कर लिया । “ नीरा सौम्या की गोद में मुँह छिपा कर बिलख पड़ी, “ माँ बाबूजी को तो पता भी नहीं है भाभी कि आप पर यहाँ क्या बीत रही है । “
” नीरा तुम्हें मेरी सौगन्ध है माँ बाबूजी से कुछ नहीं कहना । अगर उन्हें यह भ्रम बना रहे कि मैं यहाँ बहुत खुश हूँ और अगर इस तरह उनके दुख का सौवाँ हिस्सा भी कम हो रहा है तो इस निष्कासन में भी मेरे जीवन की कुछ तो सार्थकता है । मैं इसी में स्वयम को धन्य समझूँगी कि उनका थोड़ा दुख तो मैं बाँट सकी । “
” नहीं भाभी झूठ का सहारा लेकर उन्हें भ्रम में रखना उचित नहीं है । मैं उनसे कुछ भी छिपा नहीं पाउँगी । “ सौम्या ने नीरा का हाथ पकड़ कर अपने सिर पर रख लिया था, “नहीं नीरा मुझे वचन दो कि तुम माँ बाबूजी को कुछ भी नहीं बताओगी । तुम इस तरह मेरी तपस्या को भंग नहीं करोगी । ”
नीरा के मन पर मानो मन भर की शिला आ पड़ी थी । प्यालों में चाय ठंडी हो चुकी थी । आँखों में आँसू और भावोद्रेक का ज्वार थम गया था । नीरा के मन में घनघोर तूफान करवटें ले रहा था । सौम्या को इस तरह आत्मघात करने से वह कैसे रोके । उसे कुछ तो करना होगा जिससे नारी की इस रूढ़िवादी कहानी का अंत बदल जाये । उसके इस अबला स्वरूप की तस्वीर का रुख बदल जाये । सौम्या को किसी भी तरह से इस नर्क से निकालना होगा यह संकल्प उसकी चेतना पर हथौड़े की तरह अनवरत चोट कर रहा था ।
सौम्या ने धीरे से नीरा की बाँह पकड़ कर उसे हिलाया, “ नीरा मैं तो इन लोगों से अपमान सह कर पत्थर बन चुकी हूँ लेकिन तुम्हारा अपमान मैं नहीं सह पाउँगी । अब तुम जाओ नीरा और फिर दोबारा यहाँ कभी मत आना । मैं यही सोच कर संतोष कर लेती हूँ कि मैं जीते जी इस चिता में जल कर तुम्हारे भैया के प्रति अपना पत्नी धर्म निभा रही हूँ । “
“ हाँ भाभी जाना तो होगा लेकिन अकेले नहीं । “ नीरा ने कस कर सौम्या की कलाई पकड़ ली थी । उसके चेहरे पर दृढ़ निश्चय और वाणी में असाधारण ओज था । “ आप भी मेरे साथ चल रही हैं अभी और इसी वक़्त । आपको इस दशा में छोड़ कर अगर आज मैं चली गयी तो जीवन भर अपने आप से आँखें नहीं मिला पाउँगी । मैं जानती हूँ माँ बाबूजी भी मेरे इस फैसले से न केवल खुश होंगे बल्कि मुझ पर बहुत गर्व करेंगे । चलिये मेरे साथ । ज़रूरी काग़ज़ात उन्हें मथुरा से भेज दिये जायेंगे । “ और सौम्या को विरोध का कोई भी अवसर दिये बिना नीरा उसकी कलाई थाम सधे कदमों से घर के बाहर निकल गयी थी ।
समाप्त
साधना वैद

Friday, December 18, 2009

हाय तुम्हारी यही कहानी ( भाग – 3 )

( गतांक से आगे )
“ नीरा “ सौम्या की आवाज़ नीरा को विह्वल कर गयी । पीछे मुड़ कर देखा तो वाणी गूँगी हो गयी । यह सौम्या ही थी या उसकी परछाईं ! दुख की कालिमा से सँवलाया चेहरा, निस्तेज आँखें, दुर्बल काया । नीरा जैसे आसमान से नीचे आ गिरी । यत्न से सँवारा गया मेकअप और नयी चमचमाती साड़ी सौम्या के मुख की उदासी और दुर्बलता को छिपाने में अक्षम थे । पल भर सौम्या को एकटक देख नीरा सौम्या के गले से लिपट फफक पड़ी, “तुम्हें क्या हो गया है भाभी ! यह कैसी दशा बना रखी है अपनी ? “ सौम्या एकदम चुप थी । आँखों से अविरल मौन अश्रुधारा बह रही थी । नीरा फिर फूट पड़ी, “ तुमने तो लिखा था भाभी तुम बहुत खुश हो यहाँ । लेकिन तुम तो पहले से आधी रह गयी हो । “ सौम्या ने कस कर नीरा का मुख अपनी हथेली से दबा दिया । इस संकेत से नीरा कुछ समझ पाती इससे पहले ही सौम्या की सास का कर्कश स्वर गूँजा, “ भूखा जो मारते हैं हम उसे आधी नहीं होगी क्या ? ऐसी ही दुलारी थी तो निकाला क्यों था उसे अपने घर से ? जब से यहाँ आयी है नरक बना के रखा है घर को अभागी ने । अपनी माँ के घर में थी तो बाप को निगल गयी , पति के घर गयी तो पति को निगल गयी अब हमारा नसीब उजाड़ने आ गयी है यहाँ तो ना जाने किसकी बारी आ जाये । विमल तो पड़ा ही है दो महीनों से अस्पताल में । “ उन्होंने ज़ोर-ज़ोर से रोना शुरू कर दिया ।
अति नाटकीय इस प्रसंग से नीरा के मस्तिष्क में छाया भ्रम का कुहासा सहसा छँट गया । उसने तीक्ष्ण दृष्टि सौम्या के मुख पर डाली । वह अपमान से थरथर काँप रही थी । नीरा को समझ में आ गया था सौम्या क्यों इतनी चुप, उदास और दुर्बल है । ऐसे माहौल में भला कोई साँस भी कैसे ले सकता है ! अब पल भर भी वहाँ रुकने की उसकी इच्छा नहीं थी लेकिन सौम्या बलपूर्वक हाथ पकड़ उसे अपने कमरे में ले गयी । दरवाज़ा अन्दर से बंद कर वह कटे वृक्ष की तरह नीरा की गोद में ढह गयी । देर तक जी भर कर रो लेने के बाद ही सौम्या कुछ बोल पाने के योग्य हो पाई, “ नीरा तुम लोगों ने क्यों मुझे इस घर में भेज दिया ? मैं वहीं तुम्हारे भैया के नाम के सहारे सारा जीवन माँ बाबूजी के चरणों में बिता देती । उसी में मेरा जीवन सार्थक हो जाता । इसी संसार में मैंने उस घर सा स्वर्ग और इस घर सा नर्क सब साथ-साथ भोग लिये हैं । वहाँ तुम सबने मुझे इतना प्यार दिया, मान-सम्मान दिया यहाँ मैं सबकी आँखों की किरकिरी हूँ । सब मुझसे कतराते हैं, घृणा करते हैं, मुझे मनहूस समझते हैं क्योंकि मेरे यहाँ आने के चन्द हफ्तों बाद ही विमल का सड़क दुर्घटना में पैर टूट गया और वह अभी तक अस्पताल में है । नीरा बोलो इसमें मेरा क्या दोष है ? क्या ये सारे दुर्योग मेरे मनोवांछित थे ? क्या इन सारे दुखद प्रसंगों का उत्तरदायित्व मेरा है ? “
नीरा स्तब्ध अवाक थी । सौम्या को सांत्वना देने के लिये उसके पास शब्द नहीं थे । कहाँ किससे भूल हो गयी ! क्या माँ बाबूजी ने जिस उदारता का परिचय दिया था वह इस परिणति के लिये ! क्या उनका यही इष्ट था ! नीरा का मन ऊहापोह में फँसा था । सौम्या चाय बनाने के लिये रसोईघर में चली गयी थी और नीरा फिर से अतीत की दुखद स्मृतियों के वन में भटक गयी थी ।
विमान दुर्घटना में सुनील भैया की आकस्मिक और असामयिक मृत्यु से उन लोगों के जीवन में घनघोर अंधकार छा गया था । माँ और बाबूजी बिल्कुल ही टूट गये थे । उनके तो जीवन का जैसे प्रयोजन ही समाप्त हो गया था । सौम्या दुख से कातर हो गयी थी । नीरा और अनिल को लगता था जैसे बगीचे में वसंत आते ही हिमपात हो गया हो । सारा परिवार अवसाद के गह्वर में आकण्ठ डूब गया था । तूफान में घिरी सौम्या की नाव बिना नाविक के हिचकोले खा रही थी । मायके में पिता भी नहीं थे । भाई सबसे छोटा था और सौम्या से छोटी दो बहनें और भी थीं जो अभी पढ़ रही थीं । बेटी के दुर्भाग्य ने माँ का सपना ही तोड़ दिया था । सौम्या को गले लगा कर वे फूट-फूट कर रो पड़ी थीं, “ जो किस्मत में लिखा है उसे कौन बदल सकता है बेटी पर अब यही तेरा घर है और ये ही तेरे माता-पिता हैं । इन्हीं को सदा अपना सहारा मानना और इनकी सेवा में ही अपना जीवन सार्थक करना । “
नीरा की माँ के मन में सहसा बिजली सी कौंध गयी । उसी रात नीरा जब आधी रात को पानी पीने के लिये उठी तो उसने सुना माँ बाबूजी से कह रही थीं, “ बहू के बारे में आपने कुछ सोचा ? अभी उसकी उम्र ही क्या है, कैसे काटेगी इतना बड़ा जीवन अकेले ? साल दो साल में नीरा भी शादी के बाद अपने घर चली जायेगी । हम लोग जीवन भर थोडे ही बैठे रहेंगे । फिर इस बेचारी का क्या होगा ? “
“ तुम ठीक कह रही हो नीरा की माँ ! “ पिताजी का गम्भीर स्वर सुनाई दिया, “ कुछ तो करना ही होगा । सोचता हूँ थोड़ा समय निकल जाने दो फिर अच्छा घरबार देख कर सौम्या का विवाह कर दिया जाये । हम समझ लेंगे ईश्वर ने हमें एक नहीं दो बेटियाँ दी हैं । उसका कन्यादान भी हम करेंगे । तुम उसका मन टटोल कर देखना । वह मान जायेगी तो हम लड़का देखना शुरू करेंगे । “ ( क्रमश: )

Thursday, December 17, 2009

हाय तुम्हारी यही कहानी ( भाग – 2 )

(गतांक से आगे)
सौम्या को बुलाने के लिये महिला घर के अन्दर चली गयी थी । नीरा व्यग्रता से उनके बाहर आने की प्रतीक्षा कर रही थी । तभी अन्दर से फिर वही स्वर सुनाई दिया, ” जाओ बाहर । मथुरा से आई हैं तुम्हारी ननद रानी तुमसे मिलने । यह हर वक़्त टसुए बहा-बहा कर न जाने किसका अपसगुन मनाया जाता है । हमारा तो जीना हराम कर दिया है । जरूर वहाँ भी कुछ लिखा होगा चिट्ठी पत्री में तभी ना हम लोगों की जासूसी करने चली आ रही हैं यहाँ । जरा हाथ मुँह धोकर कपड़े बदल कर जाना नहीं तो समझेंगी हम न जाने कौन सी आफतें तोड़ रहे हैं तुम पर । “
नीरा सर से पाँव तक काँप गयी । तो सौम्या भाभी को यह सब झेलना पड़ रहा है यहाँ । तो उनके वे पत्र क्या सिर्फ झूठ का पुलन्दा भर थे ? क्यों किया इतना छल सौम्या भाभी ने उनके साथ ? नीरा का मन आकुल हो उठा । अपनी सास के निर्देश का पालन कर सौम्या शायद तैयार होने में व्यस्त हो गयी थी इसीलिये अभी तक बाहर नहीं आयी थी । भावनाओं के आवेग पर काबू पाना अब मुश्किल था । दुपट्टे के पल्लू को मुँह में ठूँस वह बाहर गैलरी में जा खड़ी हुई और सड़क की रौनक में अपना मन लगाने की कोशिश करने लगी । पर मन बार-बार अतीत की वीथियों में उसे खींचे लिये जा रहा था ।
नीरा को याद आ रहे थे वे दिन जब सुनील भैया को फैलोशिप के लिये ऑक्स्फॉर्ड जाने का प्रस्ताव मिला था । खुशी के मारे घर में किसी के भी पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ते थे । सुनील भैया की असाधारण प्रतिभा और उनके सुनहरे भविष्य के नशे के खुमार में सारा परिवार चूर-चूर था । नीरा जब भी अपनी सहेलियों से मिलती अपने सुनील भैया की प्रशंसा मे गर्व से सिर ऊँचा करके कशीदे से काढ़ती रहती । छोटे भाई अनिल ने तो अभी से लिस्ट बनाना शुरू कर दिया था कि उसे इंग्लैंड से क्या-क्या मँगवाना है भैया से जिन्हें दिखा कर वह अपने दोस्तों को चमत्कृत कर देना चाहता था । लेकिन माँ की एकमात्र इच्छा थी कि विदेश जाने से पहले भैया की शादी हो जाये । अपने देश की मिट्टी से जुड़ी परम्परावादी संस्कार वाली माँ को चिंता थी कि उनके भोले भाले बेटे को कहीं कोई विदेशी बाला अपने चंगुल में ना फँसा ले और उन्हें वहीं रहने को विवश ना कर दे इसीलिये वे बेटे के पैरों में बेड़ियाँ डाल देना चाहती थीं । पत्नी का बन्धन घर के अन्य सदस्यों के बन्धन से अधिक दृढ़ होता है इसे उनका अनुभवी मन खूब जानता था ।
सुनील भैया के जाने में केवल तीन माह का समय शेष रह गया था । भैया के लिये सचमुच युद्ध स्तर पर अपरूप सुन्दरी, सदगुणी लड़की की तलाश की जा रही थी । माँ बाबूजी का विचार था कि सौम्य, सुन्दर और सदगुणी लड़की अपने आप में सबसे बड़ा दहेज लेकर आती है अत: अन्य किसी दहेज की आवश्यक्ता नहीं थी । सुन्दर सजीले सुनील भैया, उज्ज्वल सम्भावनाओं से भरपूर उनका सुनहरा भविष्य तथा दहेजरहित विवाह का प्रस्ताव विवाह योग्य कन्याओं के अभिभावकों को चुम्बकीय आकर्षण के साथ अपनी ओर खींच रहे थे और तभी ढेर सारे प्रस्तावों और तस्वीरों में से सौम्या का चुनाव किया गया था । स्वप्न सुन्दरी सी रूपवती सौम्या यथानाम तथागुण थी । सलज्ज, सुलक्षण, सम्वेदनशील, समझदार, बचपन से ही पितृसुख से वंचित रह जाने के कारण अतिरिक्त गम्भीर और अंतर्मुखी । विवाह से पूर्व जब नीरा माँ के साथ सौम्या को देखने गयी थी तो उसकी इन्हीं विशेषताओं के कारण पहली ही भेंट में उसकी भक्त हो गयी थी ।
शादी के बाद सौम्या अपनी ससुराल में आ गयी थी और नीरा तथा अनिल के साथ इतनी घुलमिल गयी थी कि सबको अचरज होता था । सुनील आश्वस्त था कि इतनी समझदार पत्नी उसकी अनुपस्थिति में घर के सभी सदस्यों का बहुत ध्यान रखेगी । माँ बाबूजी आश्वस्त थे कि सौम्या के रूप में उन्होंने सुनील के पैरों में इतनी सुदृढ़ ज़ंजीर डाल दी है कि वह काम खत्म होते ही भागा-भागा स्वदेश वापिस आयेगा । नीरा और अनिल आश्वस्त थे कि सौम्या भाभी के साथ घर का वातावरण हमेशा स्निग्ध और मधुर तो रहेगा ही हल्का भी रहेगा और सौम्या आश्वस्त थी कि सुनील के विदेश जाने बाद विछोह के तीन वर्ष नीरा और अनिल के सुखद सान्निध्य में हँसते खेलते कट जायेंगे । सारा दिन घर में हास परिहास चुहलबाजी होती रहती और धमाल मचा रहता । माँ बाबूजी परम संतुष्ट मुग्धभाव से अपने सुख संसार के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान हो बच्चों की इतना खुश देख विभोर होते रहते ।
तीन महीने का समय पलक झपकते ही निकल गया । सुनील भैया के ऑक्स्फॉर्ड जाने की घड़ी समीप आ गयी । और तभी वह काली रात आयी जो उनके सुख संसार को क्षण भर में छिन्न-भिन्न कर गयी । अतीत की वीथियों में खोयी नीरा उस अनिष्टकारी प्रसंग को याद कर सिहर गयी जब विमान दुर्घटना में सुनील भैया की मौत की मनहूस खबर उन्हें मिली थी ।

Wednesday, December 16, 2009

हाय तुम्हारी यही कहानी ( कहानी )

कॉल बेल का बटन दबाते समय नीरा के हृदय में बड़ी उथल पुथल हो रही थी – हो सकता है दरवाज़ा सौम्या भाभी ही खोलें या उनके पति विश्वास हों ! अगर कहीं सौम्या भाभी ही हुईं तो कैसे उनसे मिलूँगी ! कस के लिपट जाऊँगी उनसे । पिछले छ: महीनों में जो भावनायें मन में उमड़ती रही हैं मिलते ही सारी की सारी उनके सामने उड़ेल कर रख दूँगी । नीरा अधीर हो रही थी । कितना छटपटाई है वह इन बीते दिनों में सौम्या के सान्निध्य के लिये । शंकाओं ने फिर सिर उठाया – कहीं सौम्या भाभी यहाँ नहीं हुईं तो ? अगर हुईं भी तो क्या उनके पास वक़्त होगा उसकी बकवास सुनने के लिये ? उन्होनें लिखा था विश्वास उसे पल भर भी आँखों से दूर रखना नहीं चाहते और उनके सास ससुर तो सौम्या जैसी बहू को पाकर जैसे निहाल ही हो गये हैं । घर का हर सदस्य उसकी छोटी से छोटी इच्छा पूरी करने के लिये हमेशा तत्पर रहता है ।
नीरा का मन आशंकित हो उठा _ इतने प्यार दुलार मान सम्मान के बीच कहीं सौम्या भाभी बदल तो नहीं गयी होंगी ! उनकी रुखाई उनका ठण्डा फीका व्यवहार वह कैसे झेल पायेगी । पता नहीं वे घर पर होंगी भी या नहीं ! उन्होंने लिखा था विश्वास उन्हें टूर पर भी अपने साथ ले जाते हैं । वह तो सौम्या भाभी के अलावा अन्य किसी को यहाँ ठीक से जानती भी नहीं है । नीरा उद्विग्न हो उठी । उसे पूर्व सूचना दिये बिना यहाँ इस तरह नहीं आना चाहिये था । तरह-तरह के प्रश्न मन में उठ रहे थे । धड़कते दिल से उसने बटन दबा ही दिया और अपने भावोद्रेक पर भरसक नियंत्रण कर दरवाज़ा खुलने की प्रतीक्षा करने लगी ।
अन्दर से कुण्डी खुलने की आवाज़ आई और द्वार खुलते ही एक प्रौढ़ महिला का चेहरा सामने दिखाई दिया । नीरा के चेहरे पर उचटती सी दृष्टि डाल उन्होंने रूखे स्वर में पूछा, ” कहिये! किससे मिलना है ? “
स्वर के तीखेपन से नीरा हत्प्रभ हो गयी उसे लगा अचानक उसकी आवाज़ जैसे कहीं खो सी गयी है । मस्तिष्क में सन्नाटा छा गया । प्रश्न के प्रत्युत्तर में वास्तव में उसे सोचना पड़ गया कि वह यहाँ क्यों आयी है । यत्न करने पर विचारों का सूत्र पकड़ में आया । स्वर के कम्पन पर किसी तरह नियंत्रण कर उसने धीरे से कहा ,
” नमस्ते आण्टीजी! मैं सौम्या भाभी से मिलने आई हूँ । वे घर पर हैं क्या ? “
“ सौम्या भाभी ..! कहाँ से आयी हो ? अच्छा-अच्छा तुम क्या मथुरा से आई हो ? आओ अन्दर आओ । घर पर ही हैं तुम्हारी सौम्या भाभी । बैठो बुलाती हूँ अभी । “
’तुम्हारी सौम्या भाभी ‘ इस तरह की व्यंगोक्ति का कोई औचित्य और प्रयोजन नीरा की समझ में नहीं आया । भाषा में कोई दोष नहीं था लेकिन मात्र स्वरों के उतार चढ़ाव से कैसे किसी को घायल किया जा सकता है इस कला में वे भलिभाँति निष्णात लगीं । नीरा सहसा बचैन हो उठी । उसे यहाँ नहीं आना चाहिये था लेकिन सौम्या भाभी से मिलने की उत्कण्ठा और अपने नये घर परिवार में उनको रचा बसा देखने का मोह् उसे यहाँ तक खींच लाया । प्रौढ़ महिला की तीक्ष्ण दृष्टि और वाणी की चोट से असहज हो सहमते हुए नीरा ने कमरे में प्रवेश किया । सौम्या की सास से नीरा का यह प्रथम परिचय था ।
( क्रमश: )

Tuesday, December 15, 2009

आशा

जीवन की दुर्गमता मैंने जानी है ,
अपनों की दुर्जनता भी पहचानी है ,
अधरों के उच्छ्वास बहुत कह जाते हैं ,
निज मन की दुर्बलता मैंने मानी है ।
पर साथ तेरा पा अनुभव जब विपरीत हुए
मौन अधर ने खुलना चाहा तेरे लिये ।

टूट गये विश्वास , आस्था की माला ,
जला गयी संसार द्वेष की इक ज्वाला ,
जीवन के सब रंग हुए बेरंग , बचा
दुख, दर्द, घृणा, अवसाद, व्यथा का रंग काला ,
ऐसे में जब घायल तन को तूने छुआ
बन्द पलक ने खुलना चाहा तेरे लिये ।

जली शाख पर कली एक मुस्काई है ,
दूर तेरे आँचल की खुशबू आयी है ,
कहीं क्षितिज पर सूरज कोई चमका है ,
कहीं अंधेरा चीर रोशनी आयी है ,
भावों का उन्माद बहक कर उमड़ा है
गीत हृदय ने रचना चाहा तेरे लिये ।

साधना वैद

Thursday, December 10, 2009

तुम्हें आना ही होगा

ओ मनमोहन !
द्वापर के उस कालखण्ड से बाहर आओ
कलयुग के इस मानव वन में
भूले भटके क्लांत पथिक को राह दिखाओ ।
ओ मुरलीधर !
अधिकारों के प्रश्न खड़े हैं
काम बन्द है , सन्नाटा है
ऐसे नीरव मौन पलों में
बंद मिलों के सारे यंत्रों को थर्रा दे
ऐसी प्रेरक मंजुल मधुर बाँसुरी बजाओ ।
ओ नटनागर !
यमुना तट पर महारास के रासरचैया
कलयुग के इस थके रास को भी तो देखो
आज सुदामा अवश निरंतर नाच रहा है
भग्न ताल पर गिरते पड़ते बाल सखा को
निज बाहों का सम्बल देकर प्राण बचाओ ।
ओ नंदलाला !
उस युग में ग्वालों संग कौतुक बहुत रचाये
इस युग के बालों की भी थोड़ी तो सुध लो
बोझा ढोते और समय से पूर्व बुढ़ाते
भूखे प्यासे इन बच्चों को
माखन रोटी दे इनका बचपन लौटाओ ।
ओ गिरिधारी !
दुश्चिंताओं की निर्दय घनघोर वृष्टि में
आज आदमी गले-गले तक डूब रहा है
तब भी गिरिधर तुमने सबकी रक्षा की थी
अब भी तुम छिंगुली पर पर्वत धारण कर लो
सुख के सूरज की किरणों से जग चमकाओ ।
पार्थसारथी कृष्णकन्हैया !
उस अर्जुन की दुविधा तुमने खूब मिटाई
आज करोड़ों अर्जुन दुविधाग्रस्त खड़े हैं
इनकी पीड़ा से निस्पृह तुम कहाँ छिपे हो ?
आज तुम्हें इस तरह तटस्थ ना रहने दूँगी
रुक्मणी के आँचल में यूँ छिपने ना दूँगी
यह लीला जो रची तुम्हीं ने तुम ही जानो
इनके दुख का कारण भी तुम ही हो मानो
इनकी रक्षा हेतु तुम्हें आना ही होगा
गीता का संदेश इन्हें सिखलाना होगा
निष्काम कर्म का पाठ इन्हें भी आज पढ़ा दो
धर्म अधर्म की शिक्षा देकर ज्ञान बढ़ा दो
कृष्णा ज्ञान सुधा बरसा कर सावन कर दो
अपनी करुणा से तुम सबको पावन कर दो ।

साधना वैद

Wednesday, December 9, 2009

न दिल में ज़ख्म न आँखों में ख्वाब की किरचें

न दिल में ज़ख्म न आँखों में ख्वाब की किरचें
फिर किस गुमान पे इतने दीवान लिख डाले
तमाम उम्र जब इस दर्द को जिया मैने
तब कहीं जाके ये छोटी सी ग़ज़ल लिखी है ।

साधना वैद

Saturday, December 5, 2009

मिड डे मील और जाँच के आदेश

आजकल अखबारों में खराब मिड डे मील का मामला सुर्खियों से छाया हुआ है । खराब, बासी, दूषित, कंकड़युक्त और दुर्गंधपूर्ण खाने की अंतहीन शिकायतों के साथ अभिभावकों और विद्यार्थियों की प्रतिक्रियाएं भी विचारणीय हैं । आज 5 दिसम्बर 2009 के दैनिक जागरण में पृष्ठ 2 पर एक छात्र का पत्र पढ़ने योग्य है । समाचार पत्र की लिंक दे रही हूँ
www.jagran.com

लेकिन पाठकों की सुविधा के लिये मैं यहाँ पर इस पत्र को उद्धृत करना चाहूँगी ।
“मैडम, पुरानी शिकायतें दिखवा लें
बीएसए मैडम. यह् पत्र लिखने वाला एक परिषदीय स्कूल का छोटा सा छात्र है । मैडम हम मिड डे मील में कैसा खाना खाते हैं, यह आपको जागरण ( अखबार )से पता चल ही गया होगा । मुझे भी पता चला है कि आपने मामले की एक रिपोर्ट तलब की है । परंतु छोटा होने पर भी मैं एक सवाल उठा रहा हूँ कि जाँच के तो अक्सर आदेश हो जाते हैं, रिपोर्ट माँग ली जाती है परंतु आखिर कार्यवाही कितने मामलों में होती है ? आपकी नेकनीयती पर हमें बिल्कुल संदेह नहीं परंतु यदि कार्यवाही करना चाहती हैं तो पूर्व में आई शिकायतों की फाइल शनिवार को ही लाल फीते से बाहर निकलवा लें । इसके बाद एक तरफ से कार्यवाही कर दें । हाँ, भोजन की और खराब क्वालिटी में कितना सुधार हुआ यह फिर देखने के लिये किसी भी दिन शहरी और देहात क्षेत्र के किसी भी स्कूल में निरीक्षण फिर कर लें । बच्चे आपके बड़े आभारी होंगे । “ उपरोक्त पत्र मिड डे मील की योजनाओं और उनके कार्यान्वयन की प्रक्रिया की त्रुटियों की ओर बरबस ही सबका ध्यान आकृष्ट करता है । क्या जाँच के आदेश देकर अधिकारी अपना पल्ला झाड़ सकते हैं ? क्या ऐसी शिकायतें पहली बार आयी हैं ? अगर पहले भी आयी हैं तो उन पर कब और क्या कार्यवाही हुई क्या जनता को, जिनमें बच्चे व उनके अभिभावक भी शामिल हैं, इस बारे में जानकारी देने की कोई ज़रूरत नहीं समझी जाती है ? आखिर कब तक ये भ्रष्ट नेता और अधिकारी आम जनता के स्वास्थ्य और उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे ? जाँच के आदेश देने का मतलब है कि दोषी व्यक्तियों को राहत दे दी जाये और उन्हें अपने कुकृत्यों पर पर्दा डालने और लीपापोती करने के लिये समय दे दिया जाये ताकि वे सारे सबूत मिटा सकें और अपनी गर्दन बचा सकें । जाँच का ऐसा ढोंग करने का औचित्य क्या है ?
इस बात पर विचार करने की बहुत आवश्यक्ता है कि बच्चों को गरम भोजन ही देने की क्या ज़रूरत है ? यदि आप लोग भूले नहीं होंगे तो दक्षिण भारत के एक स्कूल में बच्चों के लिये खाना बनाते वक्त भयंकर आग लग गयी थी जिसमें कई बच्चों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ गया था । ऐसी विरली दुर्घटनाओं को छोड़ भी दिया जाये तो गरम खाने के नाम पर जिस तरह का घटिया खाना वर्तमान में बच्चों को दिया जा रहा है क्या वह उचित है ? कंकड़ और कीड़ेयुक्त दुर्गंधपूर्ण दलिया और दूध की जगह पानी में पकाई गयी खीर देना क्या बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करना नहीं है ?
गरम भोजन के स्थान पर बच्चों को अच्छे स्तर का अधिक कैलोरीयुक्त पैक्ड खाना क्यों नहीं दिया जाता जिनमें उस पैकेट क़े खाद्य पदार्थ के बारे में सभी जानकारी उपलब्ध होती है ? ऐसे पैकेट्स के वितरण पर कोई सवाल नहीं उठेंगे और उन्हें बाँटने में भी सुविधा होगी । अच्छे स्तर के बिस्किट्स, पाउडर मिल्क के पाउच , चकली और चिक्की इत्यादि के पैकेट्स इसमें शुमार किये जा सकते हैं । इन पदार्थों की बेंच लाइफ भी अधिक होती है तो इनका भंडारण भी आसानी से किया जा सकता है और स्कूलों में रसोई बनाने के ताम झाम से भी मुक्ति मिल सकती है । यदि अच्छी कम्पनियों से सम्पर्क किया जायेगा तो वे बच्चों के लिये सब्सीडाइज़्ड दामों पर छोटे पैक़ेट्स में अपने यहाँ के उत्पाद अवश्य उपलब्ध कराने में सहयोग करेंगे और बच्चे भी प्रसन्नतापूर्वक इनका आनंद उठायेंगे । बच्चे हमारे देश का भविष्य हैं और दुर्बल कंधों पर हम कितना भार डाल सकते हैं कभी यह भी सोचा है आपने ?

साधना वैद

Friday, December 4, 2009

कुछ आपबीती कुछ जगबीती ( एक कविता )

पुरुष प्रधान भारतीय समाज में नारी को किस तरह से विषम परिस्थितियों में अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष करना पड़ा है । रूढिवादी रस्मों रिवाज़ और परम्पराओं की बेड़ियों से जकड़े होने के बावज़ूद भी जीवनधारा के विरुद्ध प्रवाह में तैरते हुए किस तरह से उसने आधुनिक समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है , अपनी पहचान पुख्ता की है यह कविता स्त्री की हर हाल में जीत हासिल करने की उसी अदम्य जिजिविषा को अभिव्यक्ति देने की छोटी सी कोशिश है ।



तुम क्या जानो

रसोई से बैठक तक ,
घर से स्कूल तक ,
रामायण से अखबार तक
मैने कितनी आलोचनाओं का ज़हर पिया है
तुम क्या जानो !

करछुल से कलम तक ,
बुहारी से ब्रश तक ,
दहलीज से दफ्तर तक
मैंने कितने तपते रेगिस्तानों को पार किया है
तुम क्या जानो !

मेंहदी के बूटों से मकानों के नक्शों तक ,
रोटी पर घूमते बेलन से कम्प्यूटर के बटन तक ,
बच्चों के गड़ूलों से हवाई जहाज़ की कॉकपिट तक
मैंने कितनी चुनौतियों का सामना किया है
तुम क्या जानो !

जच्चा सोहर से जाज़ तक ,
बन्ना बन्नी से पॉप तक ,
कत्थक से रॉक तक
मैंने कितनी वर्जनाओं के थपेड़ों को झेला है
तुम क्या जानो !

सड़ी गली परम्पराओं को तोड़ने के लिये ,
बेजान रस्मों को उखाड़ फेंकने के लिये ,
निषेधाज्ञा में तनी रूढ़ियों की उँगली मरोड़ने के लिये
मैने कितने सुलगते ज्वालामुखियों की तपिश को बर्दाश्त किया है
तुम क्या जानो !

आज चुनौतियों की उस आँच में तप कर
प्रतियोगिताओं की कसौटी पर घिस कर निखर कर
कंचन सी, कुंदन सी अपरूप दपदपाती
मैं खड़ी हूँ तुम्हारे सामने
अजेय अपराजेय दिक्विजयी !
मुझे इस रूप में भी तुम जान लो
पहचान लो !

साधना वैद

Thursday, December 3, 2009

तुमसे कुछ भी नहीं चाहिये ।

नयनों ने बह-बह कर कितनी सींची धरती ,
आहों ने ऊपर उठ कितना जल बरसाया ,
भावों ने मथ अंतर कितने खोदे कूँए ,
क्योंकर इसका लेखा जोखा तुमको दूँ मैं ।
यह दौलत तो मेरी, बस केवल मेरी है
मुझे तुम्हारी साझेदारी नहीं चाहिये ।

मैंने टूटे इंद्रधनुष गिरते देखे हैं ,
सपनों की गलियों में दुख पलते देखे हैं ,
तारों के संग उड़ते अगणित पंछी के दल
पंखहीन नभ से भू पर गिरते देखे हैं ।
मैंने अपना लक्ष्य और पथ ढूँढ लिया है
मुझे तुम्हारी दूरदर्शिता नहीं चाहिये ।

तुमने कब मेरे सच का विश्वास किया है,
मेरे हर संवेदन का परिहास किया है ,
मेरी आँखों ने जो देखा जाना परखा
तुमने तो केवल उसका उपहास किया है ।
अपने सच की उँगली थाम मुझे जीने दो
मुझे तुम्हारी सत्यधर्मिता नहीं चाहिये ।

मेरा सच वो सच है जिसको जग जीता है ,
सत्य तुम्हारा वैभव के पीछे चलता है ,
मेरा सपना है सबकी आँखों का सपना ,
स्वप्न तुम्हारा धन दौलत तुमको फलता है ।
देखूँ निज प्रतिबिम्ब स्वेद के दर्पण में मैं
मुझे तुम्हारी दुनियादारी नहीं चाहिये ।

साधना वैद