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Monday, November 30, 2009

विरासत

आज मैं पूर्णत: जागृत और सचेत हूँ !
घर आँगन में उगे अनजाने, अनचीन्हे, अदृश्य
कैक्टसों के असंख्यों विषदंशों ने
मुझे हर क्षण, हर पल
एक तीव्र पीड़ा के साथ झकझोर कर जगाया है
और हर चुभन के साथ मेरी मोहनिंद्रा भंग हुई है ।
उस अभिशप्त आँगन में
मेरा पर्यंक आज भी रिक्त पड़ा हुआ है ।
तुम चाहो तो उस पर सो लेना ।

आज मैं सर्वथा प्रबुद्ध और शिक्षित हूँ !
बाल्यकाल से ही जिन संस्कारों, आदर्शों और मूल्यों को
अनमोल थाती मान सगर्व, सोल्लास
अपने आँचल में फूलों की तरह समेट
मैं अब तक सहेजती, सम्हालती, सँवारती रही
वर्तमान संदर्भों में वे
निरे पत्थर के टुकड़े ही तो सिद्ध हुए हैं
जिनके बोझ ने मेरे आँचल को
तार-तार कर छिन्न-विच्छिन्न कर दिया है !
आज भी घर के किसी कोने में
मेरी साड़ी का वह फटा आँचल कहीं पड़ा होगा
तुम चाहो तो उसे सी लेना ।

आज मुझे सही दिशा का बोध हो गया है !
भावनाओं की पट्टी आँखों पर बाँध
टूटे काँच की किरचों पर नंगे पैर अथक, निरंतर, मीलों
जिस डगर पर मैं चलती रही
उस पथ पर तो मेरी मंज़िल कहीं थी ही नहीं !
लेकिन आज भी उस राह पर
रक्तरंजित, लहूलुहान मेरे पैरों के सुर्ख निशान
अब भी पड़े हुए हैं
तुम चाहो तो उन पर चल लेना ।

आज मेरी आँखों के वे दु:स्वप्न साकार हुए हैं
जिन्हें मैंने कभी देखना चाहा ही नहीं !
कहाँ वे पल-पल लुभावने मनोरम सपनों में डूबी
मेरी निश्छल, निष्पाप, निष्कलुष आँखें !
कहाँ वो बालू को मुट्ठी में बाँध
एक अनमोल निधि पा लेने के बाल सुलभ हर्ष से
कँपकँपाते मेरे अबोध हाथ !
कहाँ वो दिग्भ्रमित, दिशाहीन
हर पल मरीचिकाओं के पीछे
मीलों दौड़ते थके हारे मेरे पागल पाँव !
और कहाँ इन सारी सुकुमार कल्पनाओं में
झूठ के रंग भरते
पल-पल बहलाते, भरमाते, भावनाओं से खिलवाड़ करते
आडम्बरपूर्ण वक्तव्यों के वो मिथ्या शब्द जाल !
इन सारी छलनाओं के अमिट लेख
अग्निशलाकाओं से आज भी
मेरे हृदय पटल पर खुदे हुए हैं
तुम चाहो तो उन्हें पढ़ लेना ।

साधना वैद

Saturday, November 28, 2009

किताब और किनारे

वह एक किताब थी ,
किताब में एक पन्ना था ,
पन्ने में हृदय को छू लेने वाले
भीगे भीगे से, बहुत कोमल,
बहुत अंतरंग, बहुत खूबसूरत से अहसास थे ।
आँखे बंद कर उन अहसासों को
जीने की चेष्टा कर ही रही थी कि
किसीने हाथ से किताब छीन कर
मेज़ पर पटक दी ।
मन आहत हुआ ।
चोट लगी कि
किताबों पर तो औरों का हक़ भी हो सकता हैं !
उनमें संकलित भावनायें अपनी कहाँ हो सकती हैं !
कहाँ जाऊँ कि मन के उद्वेग को शांति मिले !
इसी निराशा में घिरी मैं जा पहुँची नदी के किनारे ।
सोचा प्रकृति तो स्वच्छंद है !
उस पर कहाँ किसी का अंकुश होता है !
शायद यहाँ नदी के निर्मल जल में
मुझे मेरे मनोभावों का प्रतिबिम्ब दिखाई दे जाये !
पर यह क्या ?
किनारों से बलपूर्वक स्वयम को मुक्त करता हुआ
नदी का प्रगल्भ, उद्दाम, प्रगाढ़ प्रवाह्
बहता जा रहा था पता नहीं
किस अनाम, अनजान, अनिर्दिष्ट मंज़िल की ओर
और किनारे असहाय, निरुपाय, ठगे से
अपनी जड़ों की जंजीरों से बँधे
अभागे क़ैदियों की तरह्
देख रहे थे अपने प्यार का इस तरह
हाथों से छूट कर दूर होते जाना ।
और विलाप कर रहे थे सिर पटक कर
लेकिन रोक नहीं पा रहे थे नदी के बहाव को ।
मन विचलित हुआ ।
मैंने सोचा इससे तो बंद किताब ही अच्छी है
उसने कितनी घनिष्टता के साथ
अपने प्यार को, अपनी भावनाओं को,
अपने सबसे नर्म नाज़ुक अहसासों को
सदियों के लिये
अपने आलिंगन में बाँध कर रखा है !
ताकि कोई भी उसमें अपने मनोभावों का
पतिबिम्ब किसी भी युग में ढूँढ सके ।

साधना वैद

Thursday, November 26, 2009

यह साल भी आखिर बीत गया

26/11//08 को मुम्बई में हुए आतंकी हमले की बरसी के अवसर पर उन शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए यह कविता प्रस्तुत कर रही हूँ जिन्होंने देश के लिये प्राण न्यौछावर करने में एक पल भी नहीं गंवाया और मातृभूमि के प्रति अपना ऋण चुका कर अपने जीवन को सफल कर लिया |

यह साल भी आखिर बीत गया ।
कुछ खून बहा, कुछ घर उजड़े,
कुछ कटरे जल कर राख हुए,
कुछ झीलों का पानी सूखा,
कुछ सुर बेसुर बर्बाद हुए ।
कुछ माचिस से कुछ गोली से
जल जीवन का संगीत गया ।

यह साल भी आखिर बीत गया ।

कुछ आँचल फट कर तार हुए,
कुछ दिल ग़म से बेज़ार हुए,
कुछ बहनों की उजड़ी माँगें,
कुछ बचपन से लाचार हुए ।
मौसम तो आये गये बहुत
दहशत का मौसम जीत गया ।

यह साल भी आखिर बीत गया ।

कुछ लोगों ने जीना चाहा
कुछ जानों का सौदा करके,
कुछ लोगों ने मरना चाहा
कुछ सिक्कों का सौदा करके ।
कुछ वहशत से कुछ नफरत से
खुशियों का हर पल रीत गया ।
यह साल भी आखिर बीत गया ।

सभी शहीदों को मेरा भावभीना नमन !

साधना वैद

Sunday, November 22, 2009

गवाही

आज मैंने जागी आँखों
एक भयावह दु:स्वप्न देखा है !
बोलो क्या तुम मेरे उस कटु अनुभव को बाँट सकोगे ?
पिघलते सीसे सी उस व्यथा कथा की
तेज़ धार को काट सकोगे ?

मैने यथार्थ के निर्मम बीहड़ में
नंगे पैरों दौड़ते लहुलुहान
उसके दुधमुँहे सुकुमार सपनों को देखा है ।

मैंने निराशा के अंधड़ में यहाँ वहाँ उड़ते
उसकी योजनाओं के डाल से टूटे हुए
सूखे पत्तों को देखा है ।

मैंने दर्द के दलदल में आकण्ठ डूबी
उसकी महत्वाकांक्षाओं की
घायल नियति को देखा है ।

मैंने कड़वाहट के तपते मरुथल में
जिजीविषा की मरीचिका के पीछे भटकते
उसकी अभिलाषाओं के जीवित शव को देखा है ।

मैने नफरत के सैलाब में
अपने मूल्यों की गहरी जड़ों से विच्छिन्न हो
उसे क्षुद्र तिनके की तरह बहते देखा है ।

मैंने उसे संशय और असमंजस के
दोराहे पर खड़े हो अपनी अंतरात्मा के
विक्रय पत्र पर हस्ताक्षर करते देखा है ।

मैंने कुण्ठाओं के अवगुण्ठन में लिपटी
सहमती झिझकती सिसकती
उसकी मूर्छित चेतना को देखा है ।

मैंने ज़रूरतों के लौहद्वार पर दस्तक देती
उसकी बिकी हुई अंतरात्मा का उसीके हाथों
पल-पल तिल-तिल मारा जाना देखा है ।

मैंने आदर्शों के चटके दर्पण में
उसके टूटे हुए व्यक्तित्व का
दरका हुआ प्रतिबिम्ब देखा है ।

मैने आज एक मसीहा को
मूल्यों से निर्धन इस समाज की बलिवेदी पर
अपनी मर्यादा की बलि देते देखा है ।
अपनी आत्मा का खून करते देखा है ।

क्या मेरी यह चश्मदीद गवाही
समाज की अन्धी न्यायव्यवस्था के
बहरे नियंताओं के कानों में जा सकेगी ?

क्या मेरी यह गवाही
उस बेबस लाचार मजबूर इंसान की झोली में
इंसाफ के चन्द टुकड़े डलवा सकेगी ?


साधना वैद

Saturday, November 21, 2009

उदास शाम

सागर का तट मैं एकाकी और उदासी शाम
ढलता सूरज देख रही हूँ अपलक और अविराम ।

जितना गहरा सागर उतनी भावों की गहराई
कितना आकुल अंतर कितनी स्मृतियाँ उद्दाम ।

पंछी दल लौटे नीड़ों को मेरा नीड़ कहाँ है
नहीं कोई आतुर चलने को मेरी उंगली थाम ।

सूरज डूबा और आखिरी दृश्य घुला पानी में
दूर क्षितिज तक जल और नभ अब पसरे हैं गुमनाम ।

बाहर भी तम भीतर भी तम लुप्त हुई सब माया
सुनती हूँ दोनों का गर्जन निश्चल और निष्काम ।

कोई होता जो मेरे इस मूक रुदन को सुनता
कोई आकर मुझे जगाता बन कर मेरा राम।

साधना वैद

Wednesday, November 18, 2009

वर्षा

चंचल चुलबुली हवा ने
जाने बादल से क्या कहा
रुष्ट बादल ज़ोर से गरजा
उसकी आँखों में क्रोध की
ज्वाला रह रह कर कौंधने लगी ।
डरी सहमी वर्षा सिहर कर
काँपने लगी और अनचाहे ही
उसके नेत्रों से गंगा जमुना की
अविरल धारा बह चली ।
नीचे धरती माँ से
उसका दुख देखा न गया ,
पिता गिरिराज हिमालय भी
उसकी पीड़ा से अछूते ना रह सके ।
धरती माँ ने बेटी वर्षा के सारे आँसुओं को
अपने आँचल में समेट लिया
और उन आँसुओं से सिंचित होकर
हरी भरी दानेदार फसल लहलहा उठी ।
पिता हिमालय के शीतल स्पर्श ने
वर्षा के दुखों का दमन कर दिया
और उसके आँसू गिरिराज के वक्ष पर
हिमशिला की भाँति जम गये
और कालांतर में गंगा के प्रवाह में मिल
जन मानस के पापों को धोकर
उन्हें पवित्र करते रहे।

साधना वैद

सम्भल के रहना अपने घर में ----

अपने बचपन की यादों के साथ देश प्रेम और देश भक्ति के जो चन्द गाने आज भी ज़ेहेन में गूँजते हैं उनके सम्मोहन से इतने वर्षों बाद आज भी मुक्त हो पाना असम्भव सा लगता है । संगीत के सूक्ष्म गुण दोषों के पारखी महान संगीतकारों के लिये हो सकता है ये गीत अति सामान्य और साधारण गीतों की श्रेणी में शुमार किये जायें लेकिन बालमन पर इनका प्रभाव कितना स्थायी और अमिट होता था यह मुझसे बढ़ कर और कौन जान सकता है । “ दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल “, “ आओ बच्चों तुम्हें दिखायें झाँकी हिन्दुस्तान की “ ,“ सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा “ , जहाँ डाल डाल पर सोने की चिड़ियाँ करती हैं बसेरा “ ऐसे ही और भी ना जाने कितने गीत थे जिनको सुनते ही मन गर्व से भर उठता था और आँखे भावावेश से नम हो जाया करती थीं । उन्ही दिनों एक गीत और बहुत लोकप्रिय हुआ था जो वर्तमान समय में जितना सामयिक और प्रासंगिक है उतना शायद उन दिनों में भी नहीं होगा । वह गीत है _ “ कहनी है एक बात हमें इस देश के पहरेदारों से सम्भल के रहना अपने घर में छिपे हुए ग़द्दारों से “ । इस गाने की सीख को हम क्यों भुला बैठे ? यदि हमने इस बात पर ग़ौर किया होता तो आज हमारे देश को ये छिपे हुए ग़द्दार इस तरह से खोखला नहीं कर पाते ।
समाचार पत्र और टी वी के सभी न्यूज़ चैनल आतंकवादियों के नये-नये कारनामों और भारत के समाज और सरज़मीं पर उनकी गहरी जड़ों के वर्णन से रंगे रहते हैं । लेकिन क्या कभी कोई इस पर विचार करता है कि कैसे ये आतंकवादी ठीक हमारी नाक के नीचे इतने खतरनाक कारनामों को अंजाम दे लेते हैं और हम बेबस लाचार से इनके ज़ुल्म का शिकार हो जाते हैं और प्रतिकार में कुछ भी नहीं कर पाते । इसकी सिर्फ एक वजह है कि यहाँ चप्पे-चप्पे पर उनके मददगार बैठे हुए हैं जो उनकी हर तरह से हौसला अफ़ज़ाई कर रहे हैं , उनकी ज़रूरतें पूरी कर रहे हैं और अपने देश और देशवासियों के साथ ग़द्दारी कर रहे हैं । कोई उनको नकली पासपोर्ट बनाने में मदद कर रहा है, तो कोई उनको सैन्य गतिविधियों और संवेदनशील ठिकानों की जानकारी उपलब्ध करा रहा है, तो कोई उन्हें अपने घर में शरण देकर उनका आतिथ्य सत्कार कर रहा है और उन्हें अपने नापाक इरादों को पूरा करने देने के लिये अवसर प्रदान कर रहा है तो कोई उन्हें उनकी आवश्यक्ता के अनुसार हथियार और विस्फोटकों की आपूर्ति कर रहा है । जैसे कि वे कोई आतंकवादी नहीं हमारे कोई अति विशिष्ट सम्मानित अतिथि हैं । और आश्चर्य की बात यह है कि ऐसे “ मेहमान नवाज़ “ समाज के निचले वर्ग में ही नहीं मिलते ये तो समाज के हर वर्ग में व्याप्त हैं । नेता हों या अभिनेता , सैनिक अधिकारी हों या प्रशासनिक अधिकारी , प्राध्यापक हों या विद्यार्थी , धर्मगुरू हों या वैज्ञानिक , कम्प्यूटर विशेषज्ञ हों या वकील , सेना या पुलिस के जवान हों या ढाबों और चाय की दुकानों पर काम करने वाले ग़रीब तबके के नादान कर्मचारी जिनमें दुर्भाग्य से अबोध बच्चे भी शामिल हैं , सब अपने छोटे-छोटे व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के लिये अवसर पाते ही देश के साथ ग़द्दारी करने से पीछे नहीं हटते । फिर चाहे कितने ही निर्दोष लोगों की जान चली जाये या देश की फ़िज़ा में कितना ही ज़हर क्यों ना घुल जाये । इनके अंदर का भारतवासी मर चुका है । ये सिर्फ लालच का एक पुतला भर हैं जिन्हें ना तो देश से प्यार है ना देशवासियों से । किसी को पैसों का लालच है तो किसीको धर्म के नाम पर गुमराह किया जाता है । अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को दबा ये अपने विदेशी आकाओं की बीन पर नाचने के लिये मजबूर हो जाते हैं ।
विदेशों से आये आतंकवादियों की खोजबीन में जितनी कसरत कवायद की जाती है उसकी आधी भी यदि घर के भेदी इन “ विभीषणों “ को पहचानने में और उन पर कड़ी कार्यवाही करने में लगाई जाये तो आधी से ज़्यादह समस्या खुद ही समाप्त हो जायेगी और आतंकवादियों की जड़ें ढीली हो जायेंगी क्योंकि इनकी मदद के बिना बाहर से आये विदेशी आतंकवादी आसानी से घुसपैठ कर ही नहीं सकते । जब तक स्थानीय लोगों का साथ और सहयोग इन दुर्दांत आतंकवादियों को मिलता रहेगा इनके हौसले बुलन्द रहेंगे और मुम्बई, दिल्ली, गुजरात और हैदराबाद जैसी भीषण काण्ड घटित होते रहेंगे । अनेकों निर्दोष लोगों की बलि चढ़ती रहेगी और अनगिनत घर परिवार उजड़ते रहेंगे ।
सवाल यह उठता है कि देश का कामकाज चलाने के लिये और लोगों की सुरक्षा के लिये जिन ज़िम्मेदार व्यक्तियों को यह काम सौंपा है यदि वे ही अपने कर्तव्यपालन से चूक जाते हैं या बेईमानी पर उतर आते हैं तो आम आदमी किसके पास जाये अपनी फरियाद लेकर ? ऐसी स्थिति में हमें स्वयम ही खुद को सबल , समर्थ और सक्षम करना होगा । मेरा सभी भारतवासियों से निवेदन है कि सजग रहिये, सतर्क रहिये, चौकन्ने रहिये अपनी आँखे और कान खुले रखिये, यदि कोई भी संदेहास्पद गतिविधि या व्यक्ति आपकी नज़र में आते हैं तो उसे अनदेखा मत करिये और अपने देश को ऐसे ग़द्दारों के हाथों खोखला होने से बचाइये । देश को तोड़ने वालों की कमी नहीं है । आज ज़रूरत है देश को जोड़ने वालों की । उसे एकता के सूत्र में पिरोने वालों की । आज अपने देश की पहरेदारी के लिये हमें खुद कमर कस कर तैयार रहना होगा और इन छिपे हुए ग़द्दारों से अपने देश को बचाना होगा । अपने कर्तव्य को पहचानिये और मातृभूमि के प्रति अपने ऋण को चुकाने से पीछे मत हटिये । अशेष शुभकामनाओं के साथ आप सभी को मेरा जय भारत ! जय हिन्दोस्तान !

साधना वैद