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Wednesday, March 24, 2010

जय रामा जी जय रामा ( बाल कथा ) 9

एक राजा था ! उसको कविता सुनने का बहुत शौक था ! उसके दरबार में यदि कोई कवि अपनी कविता सुनाने आता तो वह सारे काम छोड़ कर उसकी कविता ज़रूर सुनता और कविता लिखने वाले को खूब सारा इनाम भी देता ! बहुत से गरीब कवियों ने राजा को कवितायें सुना कर अपनी ग़रीबी दूर कर ली !
उसी देश में चार मूर्ख भी रहते थे ! उन्हें ना तो कुछ पढ़ना लिखना आता था ना ही कोई हुनर ! उन्होंने भी यह खबर सुनी कि राजा कवियों को बहुत सारा इनाम देता है तो वे उस कवि से मिलने गये जिसे कविता सुनाने पर इनाम मिला था और उससे पूछा कि कविता क्या होती है ? कवि ने उन्हें बताया कि जो भी बात गाकर कही जाये उसे कविता कहते हैं जैसे सामने मन्दिर में जो आरती हो रही है वह भी कविता है ! मूर्खों ने देखा कि लोग मन्दिर में भजन गा रहे हैं जिसके बीच में ‘जय रामा जी जय रामा’ बोलते जाते हैं ! उन्हें यह बात आसान लगी ! कवि ने उन्हें यह भी बताया कि वह आसपास जो भी कुछ देखता है उसी पर कविता लिख देता है !
चारों मूर्ख इतनी जानकारी लेकर अपने घर के सामने आकर बैठ गये ! और चारों तरफ देखते हुए कविता बनाने का प्रयास करने लगे ! जब तक कोई अच्छा विचार दिमाग में नहीं आया वे ताली बजा बजा कर ‘जय रामा जी जय रामा’ ही दोहराते रहे ! तभी पहले मूर्ख ने अपने पड़ोस के मकान में एक बूढ़ी दादी को चरखा चलाते हुए देखा ! दादी तेज़ी से चरखा घुमा रही थी और सूत बना रही थी ! चरखे से भन्न-भन्न की आवाज़ निकल रही थी ! पहला मूर्ख बोला,
”लो जी मेरी कविता तो हो गयी,
”चरखा भन्न-भन्न भन्नाये“
बाकी तीनों ने प्रसन्न होकर उसका उत्साह बढ़ाया
“जय रामा जी जय रामा“
अब दूसरे मूर्ख ने देखा कि सामने एक तेली ने अपने बैल को कोल्हू से खोल दिया है और उसे खाने के लिये भूसा और खली दी है ! वह उत्साह से बोला, “मेरी कविता की लाइन भी बन गयी,
”तेली का बैल खली भुस खाये“
बाकी सब ताली बजा कर बोले
”जय रामा जी जय रामा “
अब तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था ! उन्होंने यात्रा के लिये कुछ सामान बाँधा और राजा के महल की तरफ चल दिये सोचा आधी कविता तो बन गयी आधी रास्ते में बना लेंगे ! कहीं वो कविता भूल ना जायें इसलिये अपनी लाइनें दोहराते जा रहे थे !
“चरखा भन्न-भन्न भन्नाये
जय रामा जी जय रामा
तेली का बैल खली भुस खाये
जय रामा जी जय रामा“
बीच रास्ते में वे खाने पीने के लिये एक खेत के पास बैठ गये ! खेत में छिपा हुआ एक खरगोश खाने के लालच में धीरे-धीरे उनकी पोटली की तरफ बढ़ने लगा ! तीसरे मूर्ख ने देखा और गाकर बोला,
“चुपके चुपके आता कौन“
बाकी सब बोले
“जय रामा जी जय रामा “
फिर बोले, “अरे वाह यह भी कविता बन गयी 1”
उनका शोर सुन कर खरगोश वापिस खेत की तरफ भागने लगा तो चौथा मूर्ख बोला,
“देख लिया तो भागे क्यों“
बाकी बोले
“जय रामा जी जय रामा“
सबने खुश होकर एक दूसरे की पीठ ठोकी और कविता पूरी हो जाने पर सबको बधाई दी ! अब तो चारों बीच सड़क पर ज़ोर-ज़ोर से कविता पाठ करते हुए राजा के महल की तरफ जाने लगे !
“चरखा भन्न-भन्न भन्नाये
जय रामा जी जय रामा
तेली का बैल खली भुस खाये
जय रामा जी जय रामा
चुपके चुपके आता कौन
जय रामा जी जय रामा
देख लिया तो भागे क्यों
जय रामा जी जय रामा“
लेकिन राजा के महल तक पहुँचते-पहुँचते रात हो चली थी ! चारों ने महल के सिपाहियों को अपने आने की वजह बताई और कहा कि वे राजा को अपनी कविता सुनाना चाहते हैं ! सिपाहियों को पता था कि राजा कवियों का सम्मान करते हैं इसलिये उन्होंने उन चारों को अन्दर तो आने दिया लेकिन उन्हें यह भी बता दिया कि राजा जी से मुलाकात सुबह ही हो पायेगी ! रात को उन्हें महल की ऊँची दीवारों से लगे हुए बरामदे में ही सोना होगा ! चारों वहीं पर अपना सामान रख कर लेट गये और कहीं सुबह तक अपनी कविता भूल ना जायें इसलिये अपनी-अपनी लाइनें बोल-बोल कर दोहराने लगे !
अब हुआ यह कि दो चोर महल में चोरी करने के इरादे से आधी रात को महल की दीवार फलाँग कर अन्दर घुसे और राजा के खज़ाने की तरफ बढ़ने लगे ! पर रास्ते में तो मूर्खो का कवि सम्मेलन चल रहा था ! चोरों के कान में आवाज़ आई,
”चुपके-चुपके आता कौन
जय रामा जी जय रामा“
चोर समझे कि उन्हें देख लिया गया है तो वे डर कर भागने लगे ! तभी उनको दूसरी आवाज़ सुनाई दी ,
”देख लिया तो भागे क्यों
जय रामा जी जय रामा“
चोर समझे कि उन्हें पहचान भी लिया गया है ! अब तो उनके हौसले बिल्कुल पस्त हो गये ! उन्होंने दौड़ कर मूर्खों के पैर पकड़ लिये और माफी माँगने लगे ! मूर्खों ने चोरों को रस्सी से बाँध कर अपने पास बैठा लिया और फिर अपनी कविता रटने में लग गये ! सारी रात चोरों से भी ताली बजवा-बजवा कर “जय रामा जी जय रामा“ गवाते रहे !
सुबह जब राजा के सिपाही उनसे मिलने आये तो उन्होंने देखा कि चार की जगह छ: लोग बैठे हैं ! मूर्खों ने उन्हें बताया कि रात को उन्होंने दो चोर भी पकड़े हैं ! सिपाहियों ने चोरों के हाथों में हथकड़ियाँ लगा दीं और राजा को तुरंत इसकी सूचना दी ! राजा ने चारों मूर्खों को अपने पास बुलाया और चोर पकड़ने के लिये उनकी तारीफ की और धन्यवाद भी दिया ! अब मूर्ख बोले,
“महाराज हमारी कविता भी तो सुन लीजिये उसे सुनाने के लिये ही तो हम यहाँ आये हैं !”
राजा बोला, “हाँ हाँ ज़रूर सुनाओ !“
चारों ने कविता पाठ शुरू किया,
”चरखा भन्न-भन्न भन्नाये
जय रामा जी जय रामा
तेली का बैल खली भुस खाये
जय रामा जी जय रामा
चुपके-चुपके आता कौन
जय रामा जी जय रामा
देख लिया तो भागे क्यों
जय रामा जी जय रामा”
राजा इस ऊटपटाँग कविता को सुन हँसते-हँसते लोटपोट हो गया लेकिन क्योंकि इसी कविता से चोर पकड़े गये थे इसलिये उसने चारों मूर्खों को दोगुना इनाम देकर विदा किया ! एक चोरों को पकडवाने के लिये और दूसरा कविता सुनाने के लिये ! मूर्ख खुशी-खुशी अपने गाँव वापिस आ गये ! बस एक ही गड-बड़ हो गयी कि अब वे खुद को बहुत बडा कवि समझने लग गये थे और इसी तरह की ऊटपटाँग कवितायें बना-बना कर गाँव वालों को सुनाते रहते थे !

साधना

Sunday, March 21, 2010

चूँ–चूँ ( बाल गीत )

विश्व गौरैया दिवस पर नन्हे–मुन्नों के लिये एक बाल गीत प्रस्तुत कर रही हूँ इस आशा से कि वे इसे अवश्य पसंद करेंगे और गुनगुनायेंगे !


प्यारी चूँ-चूँ आजा तू भोली चूँ-चूँ आजा तू ,
सबका दिल बहला जा तू नन्हीं चूँ-चूँ आजा तू !

सोने की प्याली में तुझको दाना दूँगी खाने को ,
चाँदी की प्याली में मीठा पानी दूँगी पीने को ,
आकर दाना खा जा चूँ-चूँ ठण्डा पानी पी जा तू !

प्यारी चूँ-चूँ आजा तू भोली चूँ-चूँ आ जा तू !

तेरे पैरों में चाँदी की पायल मैं पहनाउँगी ,
तेरे घुँघरू की लय पर मैं गीत प्रेम का गाउँगी ,
आकर नाच दिखा जा चूँ-चूँ मीठी तान सुना जा तू !

प्यारी चूँ-चूँ आ जा तू भोली चूँ-चूँ आ जा तू !

रंग बिरंगे तेरे डैने मेरे मन को भाते हैं ,
मैं भी तेरी तरह उड़ूँ ये सपने मुझको आते हैं ,
आसमान में अपने संग मुझको भी लेकर उड़ जा तू !

प्यारी चूँ-चूँ आ जा तू भोली चूँ-चूँ आ जा तू !
सबका दिल बहला जा तू नन्हीं चूँ-चूँ आ जा तू !

साधना

Tuesday, March 16, 2010

शक्ति रूपिणी नारी

अपने सभी पाठकों को नवसंवत्सर की शुभकामनायें देते हुए चैत्र मास की प्रतिपदा के दिन मैं उस आदि शक्ति को नमन करती हूँ जिसने इस संसार के सारे दुखों का नाश कर मानव मात्र को भयमुक्त किया है और उसको समस्त सुखों का वरदान दिया है !

‘असहाय’, ‘बेचारी’, ‘दयापात्र‘,
’अबला नारी’, ‘कमज़ोर जात’,
’दासी’,‘बाँदी’,‘गोली’,‘गुलाम’
इन सारे नामों को सलाम !

ये सब अतीत की बातें हैं ,
ये सब इतिहास के हिस्से हैं !
अब जाग चुकी नारी शक्ति
उसकी शोहरत के किस्से हैं !

उसने खुद को पहचाना है,
अपनी क्षमता को जाना है,
अपनी प्रतिभा को परखा है,
अपनी महिमा को माना है !

वह पहले सी निरुपाय नहीं,
मोहताज नहीं, असहाय नहीं,
अब आया है उसका भी वक़्त,
वह है समर्थ, वह है सशक्त !

अब ऐसा कोई काम नहीं
जो उसके दम से हो ऊँचे,
अब ऐसा कोई शिखर नहीं
जहाँ उसके कदम न हों पहुँचे !

पी.टी.ऊषा, इन्दिरा गाँधी,
लक्ष्मी बाई, भारत कोकिल,
सुष्मिता, बछेन्द्री और क़िरण
इनकी यश गाथा सुनता चल !

ये शक्ति की परिचायक हैं,
ये सब प्रतिभा की द्योतक हैं,
अनमोल निधि मानवता की,
ये नारी जाति का गौरव हैं !

क्या जग इनसे अनजाना है,
इनके यश से बेगाना है ?
तुम भी तो इनको जानो तो,
कुछ परखो तो पहचानो तो !

वह ही ‘लक्ष्मी’,वह ही ‘शक्ति’,
वह‘विद्या’,’धन’,वह‘सरस्वती,
वह ‘सिंहवाहिनी’,‘रणचण्डी’,
’दुर्गा’,‘काली’,‘माँ जगतजयी’ !

जो उसको खुश कर लेता है
वह उसके दुख हर लेती है,
अपने आँचल की छाँव तले,
वह सारा जग कर लेती है !

तुम भी माता के चरणों में,
अपनी विपदा सब हार चलो,
नत मस्तक हो पावन मन से,
तुम उसकी जय जयकार करो !
तुम उसकी जय जयकार करो !
तुम उसकी जय जयकार करो !

साधना

बड़ी चली है बन कर लाट ( बाल कथा ) - 8

एक शहर में एक बिल्ली रहती थी ! एक छत से दूसरी छत पर कूदते फलांगते हुए वह पूरे शहर में घूमती रहती थी ! क़िसी घर में वह चूहे का शिकार कर लेती तो किसी घर में वह दूध मलाई पर हाथ साफ कर लेती थी ! उसका जीवन मज़े से गुज़र रहा था ! लेकिन धीरे-धीरे उम्र के साथ बिल्ली कुछ कमज़ोर होने लगी ! वह चूहा पकड़ने के लिये छलांग लगाती तो चूहा उसके हाथ से निकल भाग कर बिल में घुस जाता ! फुर्ती कम हो जाने के कारण अक्सर दूध मलाई पर भी वह अब हाथ साफ नहीं कर पाती थी ! इस वजह से वह भूखी रहने लगी !
शहर में उसका पेट भरना मुश्किल होता जा रहा था ! तब उसने शहर छोड़ कर जंगल की तरफ जाने का मन बनाया ! उसने सोचा कि जंगल का राजा तो शेर होता है और लोग बिल्ली को शेर की मौसी कहते हैं ! मैं भी जंगल के राजा शेर की मेहमान बन कर मज़े करूँगी ! बस यह सोच कर वह चल दी जंगल की ओर ! जंगल पहुँचने पर सबसे पहले उसकी मुलाकात लोमड़ी से हुई ! बिल्ली ने लोमड़ी से शेर के घर का पता पूछा !
लोमड़ी बोली, “अरे चूहे खानी बिल्ली तुझे शेर से क्या काम है ?”
बिल्ली बोली, “मैं उसकी मौसी हूँ !“
लोमड़ी को हँसी आ गई ! वह बिल्ली को डाँट कर बोली,
“चल भाग,
बड़ी चली है बन कर लाट
जा चूहे की पत्तल चाट !“
बिल्ली आगे बढ़ी ! वहाँ उसे मिला एक सियार !
बिल्ली बोली, ”मुझे शेर के घर का रास्ता बता दो !“
सियार बोला, “तुझे शेर से क्या काम है ?“
बिल्ली बोली, ”मैं उसकी मौसी हूँ ! और उससे मिलने आयी हूँ !“
सियार उसकी हँसी उड़ा कर बोला, ”अरे चूहेखानी बिल्ली ! तू और शेर की मौसी ?
चल भाग,
बड़ी चली है बन कर लाट !
जा चूहे की पत्तल चाट !“
आगे जंगल में उसे एक भेड़िया मिला ! बिल्ली ने उससे भी शेर के घर का पता पूछा !
भेड़िया बोला, “तुम्हें हमारे जंगल के राजा से क्या काम ?“
बिल्ली ने उसको भी यही बताया, ”मैं तो उसकी मौसी हूँ ! और उससे मिलने आयी हूँ !“
भेड़िया बोला, ”हट झूठी !
चल भाग,
बड़ी चली है बन कर लाट
जा चूहे की पत्तल चाट !“
ऐसे ही भटकते-भटकते बिल्ली को लकड़बग्घा, भालू और कई सारे जानवर मिले जिनसे उसने शेर के घर का पता पूछा पर किसीने भी उसे शेर का पता नहीं बताया और 'चूहेखानी बिल्ली' कह कर उसका खूब मज़ाक उड़ाय़ा ! तभी थकी और भूखी प्यासी बिल्ली को झाड़ी में छिपी हुई एक चिड़िया दिखाई दी ! उसने झपट्टा मार कर चिड़िया को दबोच लिया और उससे शेर के घर का पता पूछा ! डरी हुई चिड़िया ने बिल्ली को शेर की माँद का सही ठिकाना बता दिया ! बिल्ली चिड़िया को पकड़े हुए उस तरफ चल दी ! जब वह शेर के घर के बिल्कुल पास पहुँच गयी तो चिड़िया को उसने छोड़ दिया और दरवाज़े को डरते-डरते धीरे से खटखटाया ! अंदर से शेर दहाड़ा, ”कौन है ?“
हिम्मत करके बिल्ली बोली, “मैं ! तुम्हारी मौसी !“
शेर बोला, ”मौसी ? कौन मौसी ?“
बिल्ली बोली, ”बेटा बाहर तो आओ ! मैं तुमसे मिलने आई हूँ !“
शेर बाहर निकल कर आया और चारों तरफ देखने लगा ! उसे कोई दिखाई ही नहीं दिया ! तभी नीचे उसके पैरों के पास से आवाज़ आई, “बेटा मैं तो यहाँ पर हूँ !”
अब शेर ने बिल्ली को देखा तो दुविधा में पड़ गया !
हैरानी से बोला, “अरे, इतनी छोटी ? और मेरी मौसी ? मेरी तो कोई मौसी ही नहीं है !“
बिल्ली चालाकी से बोली, “शेरू बेटे जब तुम बहुत छोटे थे तब मैं दुनिया की सैर पर निकल गयी थी ! अब जाकर इतने सालों बाद लौटी हूँ ! वहाँ पर मैने सब जगह तुम्हारे जंगलराज की बहुत तारीफ सुनी इसीलिये मैं सीधे तुमसे मिलने आयी हूँ !”
शेर को अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था !
वह बोला, “पर ऐसा कैसे हो सकता है मौसी ? मैं तो इतना बड़ा और तुम इतनी छोटी सी ?“
बिल्ली रुआँसी होकर बोली, ”शेरू बेटे इतने दिनों से चलते-चलते मैं घिस गयी हूँ ! देखो ना मैं कितनी दुबली हो गयी हूँ और मैं भूखी भी हूँ ! अब मैं कुछ दिन तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ !“
बिल्ली की बात सुन शेर को भी दया आ गयी ! वह बोला, ”अरे-अरे मौसी बाहर क्यों खड़ी हो ! अन्दर आओ ! पलंग पर बैठो ! मैं आपके लिये सेवकों से भोजन मँगवाता हूँ !“
बिल्ली को तो मज़े आ गये ! वह आराम से पलंग पर पसर गयी और छक कर मनपसन्द खाना खाया ! शेर के घर में सेवकों पर उसका हुकुम चलने लगा और वह रोज़ तरह-तरह के पक्वान उड़ाने लगी ! बिल्ली के कुछ दिन इसी तरह ऐश के साथ बीत गये और वह मोटी भी होने लगी ! अब बिल्ली ने उन जानवरों से बदला लेने का मन बनाया जिन्होंने उसे शेर के घर का रास्ता ना बता कर उसका मज़ाक उड़ाया था ! बिल्ली थी तो पूरी नाटकबाज ! एक दिन वह सिर पर पट्टी बाँध पलंग पर लेट गयी और ज़ोर से हाय-हाय करने लगी !
शेर ने पूछा, ”मौसी क्या हो गया ?“
बिल्ली बोली, “बेटा बहुत ज़ोर से सिर में दर्द हो रहा है !“
शेर ने कहा, ”मैं अभी डॉक्टर या वैद्य को बुलाता हूँ !“
बिल्ली बोली, ”नहीं नहीं ! यह तो पुरानी बीमारी है ! इसका तो कुछ दूसरा ही इलाज होता है !“
शेर ने कहा, ”मौसी जल्दी बताओ क्या इलाज है !“
बिल्ली बोली, ”भेड़िये को बुलाओ और उसकी पूँछ काट कर मेरे माथे पर रखो तभी यह दर्द बंद होगा !“
शेर ने फौरन भेड़िये को बुलवाया और अपने सेवकों से कहा, ”इसकी पूँछ काट के मौसी को दे दो !“
भेड़िया बोला, ”महाराज यह कोई मौसी वौसी नहीं है ! यह तो चूहेखानी बिल्ली है !“
शेर ने डपट कर कहा, ”बको मत ! सेवकों इसकी पूँछ फौरन काटी जाये !“
बेचारे भेड़िये की पूँछ काट कर मौसी को दे दी गयी !
बिल्ली पूँछ सिर पर रख कर बोली, “आहा ! कितना आराम हो गया ! अब मैं बिल्कुल ठीक हूँ !“ और मज़े से बैठ गयी और सेवकों से बोली, “अब मेरा खाना ले आओ !”
थोड़े दिन इसी तरह और बीत गये ! एक दिन फिर वह पट्टी बाँध कर हाय-हाय करने लगी !
शेर बोला, ”मौसी आज यह दर्द कैसे ठीक होगा ?“
बिल्ली बोली, ”बेटा आज तो लकड़बग्घे की पूँछ कटेगी !“
लकड़बग्घे को बुलाया गया ! वह हाथ जोड कर बोला, ”हज़ूर यह चालाक चूहेखानी बिल्ली आपको धोखा दे रही है ! यह कोई मौसी वौसी नहीं है !“
शेर बोला, “बको मत ! चुपचाप बैठ जाओ !“ और उसकी भी पूँछ काट कर बिल्ली को दे दी गयी जिसे सिर पर रख कर बिल्ली बोली, “अब मैं बिल्कुल ठीक हूँ ! अब मेरा खाना ले आओ !“
इसी तरह बिल्ली खूब मज़े उड़ाती रही और हर दो चार दिन के बाद सिर दर्द का बहाना बना कर उन जानवरों की पूँछ कटवाती रही जिनसे उसे बदला लेना था ! जंगल में धीरे-धीरे पूँछ कटे जानवरों की संख्या बढ़ती जा रही थी ! एक दिन बिल्ली ने अपने सिर दर्द के इलाज के लिये लोमड़ी की पूँछ माँगी ! शेर ने लोमड़ी को बुलाने के लिए सेवकों को उसके घर भेजा ! लोमड़ी तो बहुत चालाक होती है ! उसे पता था कि एक दिन उसका भी नम्बर आ सकता है ! तैयारी के लिये उसने कुछ चूहे पाल रखे थे ! वह एक चूहे को अपने साथ छिपा कर शेर के पास पहुँची ! पहले उसने शेर को नमस्कार किया फिर बिल्ली से बोली, ”चूहेखानी जी नमस्कार !“
शेर ने लोमड़ी को डाँटा, ”मेरी मौसी का मज़ाक उड़ाती है ! उसे चूहे खानी बताती है ! यह क्या बिल्ली है ? यह तो मेरी मौसी है !“
लोमड़ी बोली, ”हज़ूर यह बिल्ली ही है !” ऐसा कह कर उसने अपना चूहा बिल्ली के सामने छोड़ दिया ! इतने दिनों बाद अपना मनपसंद भोजन देख कर बिल्ली के मुँह में पानी आ गया और उसने झपट्टा मार कर चूहे को पकड़ लिया और वहीं सबके सामने उसे खाने लगी !
लोमड़ी बोली, ”देख लीजिये ह्ज़ूर इस चूहेखानी बिल्ली को ! अब तो आपको सबूत मिल गया ?“
शेर भौंचक्का रह गया !
वह दहाड़ कर बोला, ”लोमड़ी को छोड़ो और इस मक्कार बिल्ली को पकड़ो !”
बिल्ली को फौरन पकड़ लिया गया ! शेर सोचने लगा मेरे साथ इतनी बड़ा धोखा ! इसकी अक्ल तो ठीक करनी ही चाहिये ! इसे क्या सज़ा दूँ जो यह याद रखे !
तभी लोमड़ी ने सलाह दी, ”हज़ूर इसने सबकी पूँछ कटवाई है ! अब इसकी भी पूँछ कटवा कर इसे जंगल से बाहर निकाल दिया जाये !“ इस तरह से धोखेबाज़ बिल्ली अपनी पूँछ गँवा कर वापिस अपने पुराने शहर में लौट आई ! जहाँ उसका खूब मज़ाक उड़ाया गया ! सब उसे ‘दुमकटी मौसी’ कह कर चिढ़ाते और पूछते, “यह तो बताओ मौसी शेर ने तुम्हें क्या-क्या माल खिलाये !“
बेचारी बिल्ली खिसिया के रह जाती ! गली के बच्चे उसे चिढ़ाते,
“चली थी खाने दूध मलाई
पूँछ गँवा कर वापिस आई !“

साधना

Friday, March 12, 2010

श्रीमती ज्ञानवती सक्सैना ‘किरण’ : जीवन परिचय

सुधी पाठकों,
अपनी माँ, श्रीमती ज्ञानवती सक्सैना ‘किरण’, की रचनाओं को आप तक पहुँचाने में हम दोनों बहनों को जिस अपार आनन्द की अनुभूति हो रही है वह वर्णनातीत है ! उनकी संघर्षमय सृजनशीलता, अद्भुत लगन तथा अदम्य इच्छाशक्ति को हमारी यह सविनय श्रद्धांजलि है ! जिन विषम परिस्थितियों और परिवेश में इन कविताओं का सृजन हुआ होगा इसके लिये यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि यह कार्य किसी आसाधारण व्यक्तित्व के हाथों ही सम्पन्न हुआ होगा ! माँ की इस लेखन यात्रा में हम लोग बचपन से ही उनके सहयात्री रहे हैं ! आइये संक्षेप में उनकी जीवन यात्रा के कुछ पड़ावों पर ठहर कर उन संदर्भों पर दृष्टिपात कर लें जिन्होंने निश्चित रूप से उनकी रचनाशीलता को प्रभावित किया होगा !
माँ का जन्म 14 अगस्त 1917 को उदयपुर के सम्मानित कायस्थ परिवार में हुआ ! नानाजी, श्री ज्वालाप्रसादजी सक्सैना, उदयपुर दरबार में राजस्व विभाग में महत्वपूर्ण पद पर आसीन थे एवम तत्कालीन महाराज के अत्यंत घनिष्ठ और विश्वस्त सहायकों में उनका नाम भी प्रमुख रूप से आदर के साथ लिया जाता है ! लेकिन सुख-सुविधा सम्पन्न यह बचपन बहुत अल्पकाल के लिये ही माँ को सुख दे पाया ! मात्र 6 वर्ष की अल्पायु में ही क्रूर नियति ने माँ के सिर से नानाजी का ममता भरा संरक्षण छीन लिया और यहीं से संघर्षों का जो सिलसिला आरम्भ हुआ वह आजीवन अनवरत रूप से चलता ही रहा !
माँ का जन्म जिस युग और परिवेश में हुआ उस युग में महिलाओं को सख्त नियंत्रण और पर्दे में रहना पड़ता था ! घर की चारदीवारी के बाहर की दुनिया उनके लिये नितांत अनजानी हुआ करती थी ! लड़कियों को लड़कों की तुलना में हीन जीवन जीने के लिये विवश होना पड़ता था ! उनके लिये शिक्षा के बहुत सीमित अवसर हुआ करते थे और प्राय: घरेलू काम-काज जैसे पाक कला, कढ़ाई बुनाई, चित्रकारी, सीना पिरोना, दरी कालीन आसन बनाना आदि में दक्षता प्राप्त करना ही उनके लिये आवश्यक समझा जाता था ! माँ अत्यंत कुशाग्र बुद्धि की एक अति सम्वेदनशील महिला थीं ! उन्होंने अपने घर परिवार की किसी भी मर्यादा का कभी उल्लंघन नहीं किया लेकिन अपने बौद्धिक विकास को भी कभी अवरुद्ध नहीं होने दिया ! कन्या पाठशाला में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद उन्हें स्कूल जाने के अवसर नहीं मिले जबकि हमारे सभी मामा उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे थे ! हमारे सबसे बड़े मामाजी, श्री सूरज प्रसाद जी सक्सैना, कोटा के एक ख्याति प्राप्त चिकित्सक और सर्जन थे ! माँ ने प्राइवेट विशारद पास किया और इसके उपरांत सन् 1936 में उनका विवाह पिताजी, श्री बृजभूषण लाल जी सक्सैना, के साथ हो गया ! माँ ने जहाँ घरेलू काम-काज में दक्षता प्राप्त की थी वहीं निजी स्तर पर स्वाध्याय कर उन्होंने अपनी रचनाशीलता को भी निखारने का प्रयत्न किया था ! वे बहुत अच्छी कवितायें, कहानियाँ और लेख इत्यादि लिखा करती थीं ! लेकिन उनकी यह प्रतिभा विवाह से पूर्व केवल उन्हीं तक सीमित रही !
विवाहोपरांत माँ ने बुन्देलखण्ड के वैभवशाली ज़मींदार खानदान में कदम रखा ! हमारे बाबा, श्री देवलाल जी सक्सैना, बड़ी आन बान शान वाले रौबीले व्यक्तित्व के स्वामी थे ! ससुराल में मायके से भी अधिक रूढिवादी वातावरण था ! ऐसे रूढ़िवादी वातावरण में, जहाँ लड़कियों पर ही बहुत रोक टोक और वर्जनायें लादी जाती थीं, वहाँ बहुओं पर तो उनसे भी अधिक प्रतिबन्ध लगाये जाते थे ! पर्दा इतना सख्त कि हाथ पैरों की उंगलियाँ भी दिखाई नहीं देनी चाहिये ! बुन्देलखण्ड की भीषण गर्मी और उसमें भी सिर से पाँव तक कपडों की कई कई पर्तों में लिपटे होने के बावजूद ऊपर से चादर भी ओढ़ना अनिवार्य होता था ! घर से बाहर ड्योढ़ी तक अगर जाना हो तो दोनों ओर पर्दे की कनातें तान दी जाती थीं जिनके बीच से होकर दादीजी, माँ व घर की अन्य महिलायें दरवाज़े पर रखी पालकी में जा बैठतीं और कहार उसे उठा कर गंतव्य तक पहुँचा देते !
पिताजी, श्री बृजभूषण लाल जी सक्सैना, सरकारी अफसर थे और अपनी नौकरी के कारण उन्हें नये-नये स्थानों पर स्थानांतरित होकर जाना पड़ता था ! ईश्वर का धन्यवाद कि उन्होंने माँ के अन्दर छिपी प्रतिभा को पहचाना ! ससुराल के रूढ़िवादी वातावरण से पिताजी ने उन्हें बाहर निकाला और अपनी प्रतिभा को निखारने के लिये उन्हें समुचित अवसर प्रदान किये ! माँ ने गृहणी के दायित्वों को कुशलता से निभाते हुए अपनी शिक्षा के प्रति भी जागरूकता का परिचय दिया ! उन्होंने विदुषी, साहित्यलंकार, साहित्यरत्न तथा फिर बी. ए., एम. ए. तथा एल. एल. बी. की उपाधियाँ प्राप्त कीं ! पढ़ने का शौक इतना कि होमियोपैथिक चिकित्सा में भी डॉक्टर की उपाधि प्राप्त कर ली ! शादी से पूर्व मात्र विशारद पास एक अति सामान्य शिक्षित महिला विवाहोपरांत कुछ ही वर्षों में ‘ डॉक्टर ज्ञानवती सक्सैना ‘किरण’ साहित्यलंकार, साहित्यरत्न, एम. ए., एल. एल. बी.’ कहलाई जाने लगी ! इस सबके साथ ही उनका कवितायें, कहानियाँ इत्यादि लिखने का क्रम भी लगातार चलता रहा ! लेखन का शौक उन्हें बचपन से ही था ! इलाहाबाद में अल्पावधि के लिये प्रयाग महिला विद्यापीठ में अध्ययन के दौरान श्रीमती महादेवी वर्मा तथा श्री हरिवंश राय बच्चन व अन्य मूर्धन्य साहित्यकारों के सान्निध्य में प्रोत्साहन पा साहित्य सृजन का यह अंकुर और पुष्पित पल्लवित हो गया ! इन्दौर भोपाल रेडियो स्टेशन से अक्सर उनकी कवितायें व कहानियां प्रसारित और पुरस्कृत होती रहती थीं ! उन दिनों मंच पर कवि सम्मेलनों के आयोजनों का बहुत प्रचलन था ! और माँ अक्सर निमंत्रण पाकर इन कवि सम्मेलनों में भाग लिया करती थीं ! प्राय: हम बच्चे भी ऐसे अवसरों पर उनके साथ जाया करते थे और नामचीन साहित्यकारों के साथ मंच पर माँ को बैठा देख कर बड़े गर्व का अनुभव करते थे ! मालवा क्षेत्र के साहित्यकारों में माँ का नाम काफी प्रसिद्ध था ! ‘किरण’ माँ का उपनाम था ! उनकी रचनायें प्राय: सभी स्तरीय साहित्यिक पत्रिकाओं में छपा करती थीं !
पिताजी अतिरिक्त जिला एवम सत्र न्यायाधीश के गम्भीर पद पर आसीन थे ! वे अपने कार्य में अति व्यस्त रहते थे! माँ को समाज सेवा का भी बड़ा शौक था ! पिताजी के कार्यकाल में वे अक्सर महिला मण्डलों की अध्यक्ष हुआ करती थीं और समाज सेवा के अनेक कार्यक्रमों का संचालन वे अपनी संस्था के माध्यम से किया करती थीं ! विशिष्ट अवसरों पर वे सांस्कृतिक संध्याओं का आयोजन भी किया करती थीं जिनमें प्राय: साहित्यिक नाटकों का मंचन, कवि गोष्ठियाँ तथा गीत संगीत के अनेकों रोचक कार्यक्रम हुआ करते थे ! खरगोन में उन्होंने जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘ध्रुव स्वामिनी’ का इतना सफल निर्देशन और मंचन किया था कि वर्षों तक लोगों के मन में इस अभूतपूर्व नाटक की स्मृतियाँ संचित रही थीं !
समाज सेवा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और सक्रियता को देखते हुए 1978 में उन्हें तीन वर्ष के लिये मध्यप्रदेश की समाज कल्याण परिषद का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया ! इस अवधि में उनके तत्वावधान में परिषद ने कई कल्याणकारी व लोकोपयोगी योजनाओं को राज्य में लागू किया ! वे भारतीय जनता पार्टी की भी सक्रिय सदस्य थीं और 1975 में आपातकाल के दौरान कुछ समय के लिये जेल में भी रहीं ! समाज कल्याण बोर्ड के अध्यक्ष पद से निवृत होने के बाद उनकी नियुक्ति उनके गृह नगर उज्जैन में शपथ आयुक्त के पद पर हो गयी और अपने जीवन के शेष दिनों तक वे इसी पद पर कार्यरत रहीं !
विवाह के उपरांत हम तीनों भाई बहनों की नन्हीं-नन्हीं उँगलियाँ थाम गृहस्थी के सभी दायित्वों को सुचारु रूप से सम्हालते हुए और व्यावहारिक जीवन की संघर्षमय आपाधापी के बीच साहित्य सृजन की जिस डगर पर माँ ने कदम बढाये थे उस पर वह अथक निरंतर चलती ही रहीं ! लेकिन धीरे धीरे स्वास्थ्य उनका साथ छोड़ रहा था ! 4 नवम्बर 1986 को उन्होंने राह बदल चिर विश्राम के लिये स्वर्ग के मार्ग पर अपने कदम मोड़ लिये ! इस संसार में दैहिक यात्रा के साथ-साथ उनकी लेखन यात्रा को भी पूर्णविराम लग गया ! अपने जीवन काल में अपनी रचनाओं को पुस्तक रूप में छपवाने की उत्कृष्ट इच्छा को वे कई कठिनाइयों और बाधाओं के कारण पूरा नहीं कर सकीं थीं ! उनकी इस इच्छा को पूरा करने का प्रयास हम बहनों ने किया है ! हम लोगों की शिक्षा-दीक्षा व जीवन में सफल प्रतिस्थापना के लिये उन्होंने कितने मूल्य चुकाये होंगे इसका अनुमान आज हम लोगों को कदम-कदम पर होता है ! यह अवश्य है कि अपने जीवनकाल में उन्हें अपनी कई अभिलाषाओं की बलि चढ़ानी पड़ी होगी लेकिन जो संस्कार शिक्षा और मूल्य उन्होंने हमें दिये वे अनमोल हैं और आज अपने जीवन में हम स्वयम को जिस स्थान पर पाते हैं उसमें प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों ही रूप से उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है और हम इसके लिये सदैव उनके ऋणी रहेंगे !
इन कविताओं के संकलन में कुछ कठिनाइयों का सामना भी हमें करना पड़ा है ! धुंधली लिखावट के कारण अपठनीय तथा कहीं-कहीं अधूरी छूटी पंक्तियों को पूरा करने के लिये हमने अपनी कल्पना का सहारा लेने का दुस्साहस भी किया है लेकिन इस बात का पूरा ध्यान रखने की चेष्टा की है कि कविता के मर्म को चोट ना पहुँचे और उसका केन्द्रीय भाव आहत ना हो ! गुणीजनों को यदि इसमें हमारी कोई त्रुटि दिखाई दे तो हम इसके लिये हृदय से क्षमा याचना करते हैं ! इन रचनाओं को आपकी सराहना और प्यार मिलेगा इसी विश्वास के साथ इन्हें प्रकाशित करने का बीड़ा हमने उठाया है ! यही माँ की सृजनशीलता के प्रति हमारी विनम्र श्रद्धांजलि है !
आप सभी के अनुग्रह की अपेक्षा के साथ 'उन्मना' की लिंक दे रही हूँ !

http://sadhanavaid.blogspot.com


विनीत
आशा
साधना

उन्मना
दीप की सुज्वाल में
शलभ राख जा बना
उडुगनों की ज्योति से
न हट सका कुहुर घना
सृष्टिक्रम उलझ सुलझ
खो रहा है ज़िन्दगी
नियति खोजती सुपथ
बढ़ रही है उन्मना !

किरण

Saturday, March 6, 2010

घूरे से मैं लकड़ी लाई ( बाल कथा ) - 7

एक बिल्ली थी ! एक दिन वह घूमते घूमते सड़क पर जा रही थी ! वहाँ कूड़े के ढेर पर उसे एक सूखी लकड़ी मिली ! लकड़ी को उठा कर उसने अपने कन्धे पर रख लिया और आगे चल दी ! आगे मिली उसको एक बुढ़िया ! बुढिया अपनी रोटी सेकने की तैयारी कर रही थी ! उसने आटा तो माड़ लिया था लेकिन चूल्हा जलाने के लिये उसके पास लकड़ी नहीं थी ! इस वजह से वह परेशान खड़ी थी !
बिल्ली ने उससे पूछा ,” बूढ़ी अम्मा तुम क्यों परेशान हो ! "
बुढ़िया बोली ,” मेरे पास चूल्हा जलाने के लिये लकड़ी नहीं है !"
बिल्ली बोली ,” तो क्या हुआ तुम मेरी लकड़ी लेलो ! “
बुढ़िया ने बिल्ली से लकड़ी ले ली और चूल्हा जला कर रोटियाँ सेकने लगी ! बिल्ली वहीं उसके पास बैठ गयी ! जब सारी रोटियाँ सिक गयीं तो बिल्ली बुढ़िया के सामने कूदने लगी !
बुढिया ने उससे पूछा , " तुम कूद क्यों रही हो ? “
बिल्ली बोली ,
”घूरे से मैं लकड़ी लाई
लकड़ी मैंने तुमको दी
तुम मुझे रोटी दे दो ! “
बुढिया ने उसे एक रोटी दे दी ! बिल्ली रोटी लेकर आगे चल दी ! आगे बिल्ली ने देखा कि एक कुम्हार मिट्टी के बर्तन बना रहा था ! लेकिन पास में बैठा हुआ उसका बेटा रो रहा था !
बिल्ली ने उससे पूछा, “ तुम्हारा बच्चा क्यों रो रहा है ? “
कुम्हार ने बताया कि वह भूखा है और अभी घर से उसकी माँ खाना लेकर नहीं आयी है !
बिल्ली बोली, “ बस इतनी सी बात ! तब तक तुम उसको यह रोटी दे दो ! “
कुम्हार ने बिल्ली से रोटी लेकर बच्चे को दे दी ! बच्चा रोटी खाने लगा और बिल्ली वहीं उसके पास बैठ गयी ! जब बच्चा रोटी खा चुका तो वह कुम्हार के सामने कूदने लगी !
कुम्हार ने बिल्ली से पूछा ,” तुम कूद क्यों रही हो ? “ बिल्ली बोली,
”घूरे से मैं लकड़ी लाई
लकड़ी मैंने बुढिया को दी
बुढिया ने मुझको रोटी दी,
रोटी मैंने तुमको दी ,
तुम मुझे एक मटकी दे दो ! “
कुम्हार ने उसको एक मटकी दे दी ! सिर पर मटकी रख कर मटकते हुए बिल्ली आगे चल दी ! आगे मिला उसको एक ग्वाला जो अपनी गाय, बैल और बछड़ों को लेकर सड़क के किनारे परेशान खड़ा हुआ था ! बिल्ली ने उसकी परेशानी का कारण पूछा ! ग्वाला बोला, ” गायों का दूध दुहने का टाइम हो गया है और मेरे पास यहाँ कोई बर्तन नहीं है ! मेरी समझ में ही नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूँ ! “
बिल्ली बोली, “ बस इतनी सी बात ! तुम मेरी मटकी ले लो ! “
ग्वाले ने खुशी खुशी मटकी ले ली और गायों का दूध निकालने लगा ! बिल्ली वहीं बैठ गयी ! जब ग्वाले का काम खत्म हो गया तो बिल्ली उसके सामने भी कूदने लगी !
ग्वाला बोला, “ अरे तुम कूदने क्यों लगीं ? “ बिल्ली बोली,
”घूरे से मैं लकड़ी लाई
लकड़ी मैने बुढ़िया को दी
बुढिया ने मुझको रोटी दी
रोटी मैंने कुम्हार को दी
कुम्हार ने मुझको मटकी दी
मटकी मैने तुमको दी
तुम मुझे एक बैल दे दो ! “
ग्वाला सोच में पड़ गया लेकिन फिर उसने एक बैल की रस्सी बिल्ली को थमा दी ! बिल्ली बैल को लेकर एक गाँव में पहुँची ! गाँव में उसने देखा कि सब किसान अपने खेतों में बैल जोत कर हल चला रहे हैं ! लेकिन एक खेत का किसान और उसका परिवार आँखों में आँसू भरे उदास बैठा है ! बिल्ली ने उनसे इसका कारण पूछा ! किसान ने बताया कि बीमारी से उसका बैल मर गया है इसलिये वह अपना खेत नहीं जोत पा रहा है !
बिल्ली ने फौरन उसे अपना बैल दे दिया और बोली , “ यह बैल तुम ही रख लो ! यह तुम्हारे काम आयेगा ! “
किसान बहुत खुश हो गया ! और अपना खेत जोतने लगा ! बिल्ली उसके परिवार के साथ बैठ गयी ! किसान की बेटी ने उसे अपनी गोदी में ले लिया और किसान की बीबी ने उसे दूध पीने के लिये दिया ! बिल्ली कुछ दिन उन्हीं लोगों के साथ रही ! एक दिन बिल्ली किसान के सामने भी कूदने लगी !
किसान ने पूछा , “ क्या हुआ ? तुम कूद क्यों रही हो ? “ बिल्ली बोली,
”घूरे से मैं लकड़ी लाई
लकड़ी मैंने बुढ़िया को दी
बुढिया ने मुझको रोटी दी
रोटी मैंने कुम्हार को दी
कुम्हार ने मुझको मटकी दी
मटकी मैंने ग्वाले को दी
ग्वाले ने मुझको बैल दिया
बैल मैंने तुमको दिया
तुम मुझे अपनी बेटी दे दो ! “
यह सुन कर किसान चौंक पड़ा ! बोला ,” ऐसे कैसे हो सकता है ? “ लेकिन बिल्ली ने किसान और उसकी बीबी की खूब खुशामद की और उन्हें अपनी बेटी उसे देने के लिये मना ही लिया ! बेटी भी बिल्ली को गोदी में लेकर उसके साथ उसके घर की ओर चल दी ! अब रास्ते में उन लोगों को मिली एक बरात ! किसान की बेटी और बिल्ली सड़क के किनारे खड़े होकर बरात देखने लगे ! उन्होंने देखा कि सारे बैण्ड बाजे बिना बजते हुए खामोश जा रहे थे ! सब बरातियों के मुँह लटके हुए थे ! घोड़े पर दूल्हा मुँह झुकाये उदास बैठा था ! बिल्ली ने उनसे जानना चाहा कि आखिर माजरा क्या है ! तो उन्होंने बताया कि बरात लड़की वालों के दरवाज़े से शादी किये बिना वापिस लौट रही थी ! वरमाला से पहले ही बरातियों और घरातियों में झगड़ा हो गया और बरात को बैरंग वापिस लौटा दिया गया ! अब सब इसी फिक्र में डूबे हैं कि घर क्या मुँह लेकर जायेंगे !
बिल्ली को तुरंत एक ख्याल दिमाग में आया ! उसने गौर से दूल्हे को देखा ! दूल्हा उसे अच्छा लगा ! वह फौरन दूल्हे के पिता के पास पहुँची और बोली, “ मेरे साथ एक बहुत ही सुन्दर और अच्छी लड़की है ! अगर तुम चाहो तो उसके साथ अपने लड़के की शादी कर सकते हो ! “
दूल्हे के पिता को बात जँच गयी ! किसान की लड़की उसे भी पसंद आ गयी ! बैण्ड बाजे बजने लगे ! सड़क के किनारे ही शादी की सारी तैयारी हुई और धूमधाम के साथ शादी हो गयी ! बराती दूल्हा दुल्हन को साथ लेकर घर लौटने की तैयारी करने लगे ! तभी बिल्ली सबके सामने ज़ोर ज़ोर से कूदने लगी ! लोगों ने अचरज से भर कर बिल्ली से इसका कारण पूछा तो वह बोली ,
”घूरे से मैं लकड़ी लाई
लकड़ी मैंने बुढ़िया को दी
बुढ़िया ने मुझको रोटी दी
रोटी मैंने कुम्हार को दी
कुम्हार ने मुझको मटकी दी
मटकी मैंने ग्वाले को दी
ग्वाले ने मुझको बैल दिया
बैल मैंने किसान को दिया
किसान ने मुझको बेटी दी
बेटी मैंने तुमको दी
तुम मुझे अपनी ढोलक दे दो !”
बराती बोले ,” बस इतनी सी बात ! “ उन्होंने फौरन अपनी ढोलक बिल्ली को दे दी ! बिल्ली ने ढोलक अपने गले में लटका ली और ढप ढप बजाती हुई अपने घर की तरफ चल दी ! इस बार बिल्ली को उसकी मनपसंद चीज़ मिल ही गयी जिसे लेकर वह खुशी खुशी अपने घर चली गयी ! मेहनत और धैर्य से मनवांछित फल पाया जा सकता है !


साधना वैद

Friday, March 5, 2010

बुक बुक बुक दरवाज़ा खोलो ( बाल कथा ) - 6

एक बकरी थी ! वह अपने चार बच्चों के साथ एक छोटे से घर में रहती थी ! उसका घर एक जंगल में था ! उसी जंगल में एक दुष्ट भेड़िया भी रहता था ! भेड़िया बकरी के बच्चों को खाना चाहता था और उसके लिये हर समय मौके की फिराक में रहता था ! एक दिन बकरी को घर का सामान खरीदने के लिये घर से बाहर जाने की ज़रूरत हुई ! उसने अपने बच्चों को समझाया ,
” बच्चों मैं ज़रूरी काम से बाहर जा रही हूँ ! जल्दी ही लौट आउँगी ! तुम्हारे लिये नरम नरम हरी हरी घास भी लेकर आउँगी ! मेरे जाने के बाद तुम दरवाज़ा अन्दर से बंद कर लेना ! कोई भी आवाज़ दे तुम दरवाज़ा मत खोलना ! जब मैं आउँगी तब दरवाज़ा खटखटा कर बोलूँगी ,
'बुक बुक बुक दरवाज़ा खोलो
हरी घास लेकर मैं आई ! '
मेरी आवाज़ सुन कर तुम दरवाज़ा खोल देना ! “
बकरी का सबसे छोटा बच्चा सबसे होशियार था ! बकरी ने उसे सब बच्चों का ख्याल रखने की ज़िम्मेदारी सौंपी और घर से बाहर चली गयी ! छोटे बच्चे ने दरवाज़ा अन्दर से अच्छी तरह से बंद कर लिया और सब बच्चों से बोला,
” हम सब घर के अन्दर ही खेलेंगे ! कोई भी घर से बाहर नहीं जायेगा ! “
बकरी को अकेले जाते हुए दुष्ट भेड़िये ने देख लिया ! वह सोचने लगा आज तो बच्चे ज़रूर घर में अकेले होंगे ! वह सीधा भाग कर बकरी के घर पहुँचा और दरवाज़ा खटखटाने लगा ! तीनों बड़े बच्चे बोले,
“ माँ आ गई माँ आ गई ! “
लेकिन छोटा बच्चा बोला ,” बिल्कुल नहीं यह माँ नहीं हो सकती क्योंकि माँ ने तो कहा था वह बोलेगी
’ बुक बुक बुक दरवाज़ा खोलो
हरी घास लेकर मैं आई ! ‘
भेड़िये ने बच्चों की सारी बातें सुन लीं और उस वक़्त तो लौट गया लेकिन थोड़ी देर बाद फिर से वापिस आया ! और ज़ोर ज़ोर से दरवाज़ा पीट कर अपनी भारी आवाज़ में कहने लगा ,
”बुक बुक बुक दरवाज़ा खोलो
हरी घास लेकर मैं आई !”
तीनों बड़े बच्चे फिर भाग कर दरवाज़े के पास पहुँचे और कहने लगे ,” अब तो माँ आ गयी ! “
लेकिन छोटा बच्चा फिर बोला ,” ठहरो ! अभी भी कुछ गड़बड़ लगती है ! माँ की आवाज़ इतनी भारी कैसे हो गई ! उसकी आवाज़ तो बहुत पतली और मीठी है ! “
बाकी बच्चे भी बोले ,” हाँ यह बात तो है ! “ और उन्होंने दरवाज़ा नहीं खोला !
भेड़िया खिसिया कर फिर से वापिस लौट गया और सोचने लगा कि अब क्या तरकीब लगाऊँ ! सोचता हुआ वह जंगल के पास वाले गाँव के डॉक्टर की दुकान पर पहुँचा और उनसे बोला,” डॉक्टर साहेब कोई ऐसी दवा दे दीजिये जिससे मेरी आवाज़ पतली हो जाये ! “
डॉक्टर ने पूछा ,” ऐसा क्यों चाहते हो ? “
भेड़िया बोला ,” मेरी भारी आवाज़ अच्छी नहीं लगती है 1 “
डॉक्टर ने कहा ,” ठीक है ! “ और उसे ऐसी दवा दे दी जिससे भेड़िये की आवाज़ कुछ पतली हो गयी !
भेड़िया लपक कर फिर बकरी के दरवाज़े पर पहुँचा और दरवाज़ा पीट पीट कर पतली आवाज़ बना कर बोला ,
”बुक बुक बुक दरवाज़ा खोलो
हरी घास लेकर मैं आई ! “
बच्चे भागे भागे फिर से दरवाज़ा खोलने के लिये आगे आये लेकिन छोटा बच्चा फिर बोला ,” ठहरो ! सब कुछ ठीक नहीं लगता ! कुछ गड़बड़ ज़रूर है ! माँ के पैर तो पतले पतले हैं ! वह तो दरवाज़ा धीमे धीमे खटखटाती हैं यह तो कोई ज़ोर ज़ोर से धप धप करके दरवाज़ा पीट रहा है ! हम दरवाज़ा नहीं खोलेंगे !”
यह सुन कर भेड़िया फिर वहाँ से भाग गया और बैठ कर सोचने लगा कि अब क्या तिकड़म लगाउँ क़ि बच्चे मेरे झाँसे में आ जायें ! तभी उसे एक तरकीब सूझी ! और उसने अपने एक हाथ पर रूई रख कर पट्टी बाँध ली जैसे चोट लगने पर बाँध लेते हैं और फिर जा पहुँचा बकरी के घर के दरवाज़े पर ! इस बार उसने अपनी आवाज़ पतली कर और पट्टी बँधे हाथ से दरवाज़ा खटखटा कर कहा,
”बुक बुक दरवाज़ा खोलो !
हरी घास लेकर मैं आई ! “
बच्चों ने चौंक कर छोटे बच्चे से पूछा ,” अब क्या लगता है ? यह माँ है कि नहीं ? “
इस बार छोटा बच्चा भी बोला , “ यह तो सचमुच माँ ही लगती है ! “ और बच्चों ने दरवाज़ा खोल दिया !
भेड़िया तेज़ी से झपटा और चारों बच्चों को पकड़ कर घप से निगल गया ! दरवाज़ा खुला छोड़ वह भाग कर नदी के पास पहुँचा और पानी पीकर वहीं रेत पर सो गया ! कुछ देर में बकरी अपना काम खत्म करके बच्चों के लिये हरी हरी घास लेकर घर लौटी ! दरवाज़ा खुला देख वह सन्न रह गयी ! बच्चों को आवाज़ देती हुई वह अन्दर भागी ! लेकिन बच्चे तो वहाँ थे ही नहीं ! वह रोती हुई बच्चों को घर के आस पास खोजने लगी ! उसको भेड़िये पर शक हुआ ! उसे पता था कि दोपहर के वक़्त भेड़िया अक्सर नदी के किनारे ही आराम करता हुआ मिलता है ! वह सीधे वहीं पहुँची ! भेड़िया ज़ोर ज़ोर से खर्राटे लेकर सो रहा था और उसका पेट खूब फूला हुआ था ! बकरी की समझ में सारा माजरा आ गया ! उसने गुस्से से भर कर पूरी ताकत से भेड़िये के पेट को अपने सींग से चीर दिया ! चारों बच्चे बाहर निकल पड़े और भेड़िया मर गया ! बकरी अपने बच्चों को लेकर घर आ गयी और बच्चों से सारी बात जानने के बाद उसने छोटे बच्चे की समझदारी की तारीफ भी की ! और अपने घर के दरवाज़े में एक छोटा छेद भी बना दिया जिसमें से झाँक कर बच्चे देख सकें कि बाहर जो खड़ा है वह दोस्त है या दुश्मन ! सब बच्चों ने मिल कर हरी हरी नरम नरम घास खाई और अपनी माँ की गोद में दुबक कर निश्चिंत होकर सो गये !

साधना वैद

Wednesday, March 3, 2010

चलो चलें माँ .... ( एक लघु कथा )

नन्हा लंगूर डिम्पी अपने कान में उंगली डाले ज़ोर ज़ोर से चीख रहा था ! जिस पेड़ पर उसका घर था उसके नीचे बहुत सारे बच्चे होली के रंगों से रंगे पुते ढोल बजा बजा कर हुड़दंग मचा रहे थे ! कुछ बच्चों के हाथ में कुल्हाड़ी थी तो कुछ के हाथ में धारदार बाँख ! ये सब होली जलाने के लिये लकड़ी जमा करने निकले थे ! डिम्पी डर से थर थर काँप रहा था ! डिम्पी की आवाज़ सुन दूर से लम्बी लम्बी छलांगे भर पल भर में उसकी माँ उसके पास पहुँच गयी और ज़ोर से उसे अपनी छाती से चिपटा लिया ! बच्चों का हुजूम देख माँ के माथे पर भी चिंता की लकीरें उभर आयी थीं !
सहमे डिम्पी ने माँ के गले लग पूछा, “ माँ क्या ये फिर से हमारा घर तोड़ देंगे ? अब हम किधर जायेंगे ? माँ पहले हम कितने खुश थे ! शहर के पास वाले जंगल में जहाँ हमारा घर था वहाँ मैं अपने दोस्तों के साथ कितना खेलता था ! वहाँ कितने सारे पेड़ थे ! हम सब सारे पेड़ों पर कितनी धमाचौकड़ी मचाते थे ! लेकिन एक दिन वहाँ कुछ लोग आये ! ज़मीन की नाप जोख हुई और पता चला कि वहाँ कोई कॉलेज बनाया जायेगा ! उसके बाद एक दिन बहुत सारे लोगों ने आकर वहाँ के सारे पेड़ काट डाले ! हम लोगों के घर भी उजड़ गये ! हम शहर से और दूर वाले जंगल में चले गये ! मेरे सारे दोस्त बिछड़ गये लेकिन फिर भी हम वहाँ मन लगा रहे थे कि कुछ दिनों के बाद फिर से वही सब कुछ दोहराया जाने लगा ! पता चला इस बार वहाँ रिहाइशी कॉलॉनी बनायी जा रही थी जो अपने आप में एक शहर की तरह थी ! इसमें स्कूल, पार्क, अस्पताल, स्वीमिंग पूल, शॉपिंग मॉल सब बनाये जाने वाले थे ! एक बार फिर हमारे घर बहुत बड़े पैमाने पर उजाड़े गये ! इतने बड़े अभियान के लिये दूर दूर तक जंगल साफ कर दिये गये ! क्यों माँ ये इंसान कभी अपने घर के लिये, कभी अपने घर के खिड़की दरवाज़ों के लिये, कभी फर्नीचर के लिये तो कभी कॉपी किताबों के लिये तो कभी मरने के बाद श्मशान में लाशों को जलाने के लिये हमसे पूछे बिना हमारे घर क्यों उजाड़ देते हैं ? क्या इनकी सारी ज़रूरतें हमारे घरों से ही पूरी होती हैं ? हम कभी भूले भटके इनके घर के बगीचे में घुस जाते हैं तो ये बम पटाखे पत्थर डंडे सब लेकर हम पर क्यों पिल पड़ते हैं माँ ? ये हमारे सारे खाने पीने के साधन वाले पेड़ अपनी ज़रूरत के लिये काट डालते हैं और हम अगर इनके घर से एक केला भी उठा लें तो ये हमें पकड़वाने के लिये नगर निगम तक शिकायत लेकर क्यों पहुँच जाते हैं माँ ? क्या इंसानों की तरह हम वन्य जीव अपने बुनियादी अधिकारों के लिये नहीं लड़ सकते ? सबसे होशियार माने जाने वाले इंसान की सोच इतनी तंग और छोटी क्यों होती है माँ ? तुम बताओ माँ क्या कहीं कोई जगह ऐसी है जहाँ हम इस आतंकी इंसान के अत्याचारों से बच कर सुकून से रह सकें ? जहाँ यह स्वार्थी इंसान अपनी ज़रूरतों के लिये हमारी शांत सुकून भरी ज़िन्दगी में खलल न डाल सके और मैं चैन से तुम्हारी गोद में सो सकूँ ?
“ चलो चलें माँ सपनों के गाँव में
काँटों से दूर कहीं फूलों की छाँव में ! ”


साधना वैद