Followers

Saturday, May 29, 2010

तुम्हारे बिना

चाँद मेरे आँगन में हर रोज उतरता भी है,
अपनी रुपहली किरणों से नित्य
मेरा माथा भी सहलाता है,
पर उस स्पर्श में वो स्निग्धता कहाँ होती है माँ,
जो तुम्हारी बूढ़ी उँगलियों की छुअन में हुआ करती थी !

चाँदनी हर रोज खिड़की की सलाखों से
मेरे बिस्तर पर आ अपने शीतल आवरण से
मुझे आच्छादित भी करती है,
अपनी मधुर आवाज़ में मुझे लोरी भी सुनाती है,
पर उस आवरण की छाँव में वो वात्सल्य कहाँ माँ
जो तुम्हारे जर्जर आँचल की
ममता भरी छाँव में हुआ करता था,
और उस मधुर आवाज़ में भी वह जादू कहाँ माँ
जो तुम्हारी खुरदुरी आवाज़ की
आधी अधूरी लोरी में हुआ करता था !

सूरज भी हर रोज सुबह उदित होता तो है,
अपने आलोकमयी किरणों से गुदगुदा कर
सारी सृष्टि को जगाता भी है ,
लेकिन माँ जिस तरह से तुम अपनी बाहों में समेट कर,
सीने से लगा कर, बालों में हाथ फेर कर मुझे उठाती थीं
वैसे तो यह सर्व शक्तिमान दिनकर भी
मुझे कहाँ उठा पाता है माँ !

दिन की असहनीय धूप में कठोर श्रम के बाद
स्वेदस्नात शरीर को सूर्य की गर्मी जो सन्देश देती है,
उसमें तुम्हारी दी अनुपम शिक्षा का वह
अलौकिक तेज और प्रखर आलोक कहाँ माँ
जिसने आज भी जीवन की संघर्षमयी,
पथरीली राहों पर मुझे बिना रुके, बिना थके
लगातार चलने की प्रेरणा दी है !

मुझे किसी चाँद, किसी सूरज की ज़रूरत नहीं थी माँ
मुझे तो बस तुम्हारी और सिर्फ तुम्हारी ज़रूरत है
क्योंकि उम्र के इस मुकाम पर पहुँच कर भी
आज मैं तुम्हारे बिना स्वयं को
नितांत असहाय और अधूरा पाती हूँ !

साधना वैद

Tuesday, May 11, 2010

कितनी बार...

कितनी बार...
कितनी बार तुम मुझे अहसास कराते रहोगे
कि मेरी अहमियत तुम्हारे घर में,
तुम्हारे जीवन में
मात्र एक मेज़ या कुर्सी की ही है
जिसे ज़रूरत के अनुसार
कभी तुम बैठक में,
कभी रसोई में तो कभी
अपने निजी कमरे में
इस्तेमाल करने के लिए
सजा देते हो
और इस्तेमाल के बाद
यह भी भूल जाते हो कि
वह छाया में पड़ी है या धूप में !
कितनी बार तुम मुझे याद दिलाओगे
कि मैं तुम्हारे जीवन में
एक अनुत्पादक इकाई हूँ
इसलिए मुझे कैसी भी
छोटी या बड़ी इच्छा पालने का
या कैसा भी अहम या साधारण
फैसला लेने का
कोई हक नहीं है
ये सारे सर्वाधिकार केवल
तुम्हारे लिए सुरक्षित हैं
क्योंकि घर में धन कमा कर
तो तुम ही लाते हो !
कितनी बार तुम मुझे याद दिलाओगे
कि हमारे साझे जीवन में
मेरी हिस्सेदारी सिर्फ सर झुका कर
उन दायित्वों को ओढ़ने
और निभाने की है
जो मेरे चाहे अनचाहे
तुमने मुझ पर थोपे हैं,
और तुम्हारी हिस्सेदारी
सिर्फ ऐसे दायित्वों की सूची को
नित नया विस्तार देने की है
जिनके निर्वहन में
तुम्हारी भागीदारी शून्य होती है
केवल इसलिए
क्योंकि तुम ‘पति’ हो !

साधना वैद

Friday, May 7, 2010

“ बताओ ना मम्मा “

मेरा मन आज बहुत विचलित है ! मेरी छोटी बेटी शलाका ने आज मुझसे जो सवाल पूछे उनके जवाब मेरे पास नहीं हैं ! आज यह पोस्ट मैं आप सभी प्रबुद्ध पाठकों के सामने इसी प्रत्याशा से रख रही हूँ कि आप शायद उसके प्रश्नों का समुचित जवाब दे पायें और उसके नन्हे मन की अनंत जिज्ञासाओं को शांत कर सकें ! उसके सवालों का रेपिड फायर राउण्ड तब शुरू हुआ था जब नव रात्रि के व्रत के समापन के अवसर पर उसके लिए अष्टमी के दिन पड़ोस के वर्माजी के यहाँ से कन्या पूजन का बुलावा आया था ! साल में दो बार कोलोनी की सारी छोटी छोटी बच्चियों के लिए यह अवसर सामूहिक पिकनिक की तरह हुआ करता है जब सबको एक साथ कई कई घरों से आमंत्रण मिलता है और उन्हें बड़े आदर मान के साथ खिला पिला कर रोली टीका करके भेजा जाता है ! और ऐसे ही अवसरों पर उनके ‘सामान्य ज्ञान’ में कितनी वृद्धि हो जाती है और हर परिवार की छोटी बड़ी सभी बातों की वे किस प्रकार संवाहक बन जाती हैं इसकी कल्पना भी करना मुश्किल है ! शलाका वर्माजी के यहाँ से लौट कर आयी थी !
“ मम्मा लड़कियों को क्यों बुलाते हैं पूजा के लिए ? “
मैंने बड़े प्यार से उसे समझाना चाहा , “ बेटा इसलिए क्योंकि लड़कियों को देवी का रूप माना जाता है और इसीलिये छोटी बच्चियों को बुला कर उनकी पूजा करते हैं, उन्हें भोजन कराते हैं और फल-फूल, वस्त्र उपहार आदि देकर विदा करते हैं ! “
बस यहीं गड़बड़ हो गयी ! शलाका की बैटरी चार्ज हो गयी थी !
“ मम्मा लड़कियों को देवी क्यों मानते हैं ?”
“ अगर लड़कियाँ देवी होती हैं तो वर्मा आंटी के यहाँ जब दिव्या की छोटी बहिन आयी थी तो उसकी दादी गुस्सा क्यों हो रही थीं और आंटी क्यों रो रही थीं ? “
“ मम्मा कल के अखबार में न्यूज़ थी ना कि कचरे के ढेर पर पडी हुई ज़िंदा लड़की मिली ! मम्मा क्या ‘देवी’ को कचरे में फेंक देते हैं ? “
“ मम्मा वो आंटी भी तो अष्टमी के दिन लड़कियों को अपने घर बुलाती होंगी ना पूजा के लिए जिन्होंने अपनी बेटी को कचरे में फेंका होगा ! फिर उन्होंने अपने घर की ‘देवी’ को क्यों फेंक दिया ? “
“ मम्मा अगर उस लड़की को कोई कुत्ता या बन्दर काट लेता तो ? “
“ मम्मा ऐसे बच्चों को कौन ले जाता है ? “
“ मम्मा क्या लड़कों को भी देवता मानते हैं ? “
“ मम्मा क्या लड़कों को भी ऐसे ही घूरे पर फेंक देते हैं ? “
“ मम्मा सब लड़कियों के हक की बात क्यों करते हैं ? क्या लड़कों का कोई हक नहीं होता ? “
“ मम्मा लड़कियां कमजोर कैसे होती हैं ? मेरे क्लास में तो लड़कियां ही फर्स्ट आती हैं !”
“ मम्मा टी वी पर लड़कियों को ही पढ़ाने के लिए क्यों कहते हैं ? क्या लड़कों को पढ़ने की ज़रूरत नहीं होती ? “
“ मम्मा वंश बढ़ाने का क्या मतलब होता है ? “
“ मम्मा क्या सिर्फ लड़कों से ही वंश बढता है ? “
“ मम्मा लड़कियाँ भी तो अपने मम्मी पापा की संतान होती हैं तो फिर उनसे वंश क्यों नहीं बढ़ता ? “
“ बस शलाका बस ! बाहर जाकर खेलो और मुझे काम करने दो ! “
मैं झुंझला कर बोली ! शलाका मेरा चेहरा देख कुछ सहम गयी और अपने अगले सवाल को मुंह में ही दबाये बाहर चली गयी ! मेरा धैर्य चुक गया था इसलिए नहीं कि शलाका एक के बाद एक सवाल दागे जा रही थी बल्कि इसलिए कि इन सवालों के जवाब मैं स्वयं ढूँढ रही हूँ वर्षों से ! मैंने उसकी जिज्ञासा पर अस्थाई ब्रेक ज़रूर लगा दिया था ! लेकिन मेरे मन मस्तिष्क में उसका हर प्रश्न हथौड़े की तरह चोट कर रहा था ! मेरे पास उसके किसी सवाल का यथोचित जवाब नहीं था जो उसके मन की शंकाओं का तर्कपूर्ण ढंग से निवारण कर पाता ! इसीलिये आज आप सबकी शरण में आयी हूँ सहायता एवं मार्गदर्शन की प्रत्याशा से कि शायद आप उसे समाज में व्याप्त इन निर्मम विसंगतियों के लिए कोई माकूल जवाब दे सकें ! अंत में इस क्षणिका के साथ मैं यह आलेख यहीं समाप्त करती हूँ ताकि आप इसके सूत्र को अपने हाथ में ले सकें !
बना देवी मुझे पूजा दिखाने को ज़माने को,
यह सब छल था तेरा बस एक झूठा यश कमाने को.
कहाँ थी तब तेरी भक्ति दिया था घूरे पे जब फेंक,
मैं तब भी थी वही ‘देवी’ उसे तू क्यों न पाई देख !

साधना वैद