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Friday, November 26, 2010

ढाक के तीन पात

सुबह सुबह जब घरेलू काम वाली बाइयों के साथ उनकी छोटी-छोटी लडकियों को सर्दी से बचने के लिये बगल में हाथ दबाये अपनी माँओं के साथ काम पर जाता हुआ देखती हूँ तो मन में दर्द की लकीर सी खिंच जाती है ! जिन छोटे-छोटे हाथों में कॉपी किताबें होनी चाहिए वे ठिठुरन भरी सर्दी में बर्तन घिसने के लिये विवश हैं ! लगभग पन्द्रह बीस वर्ष पहले मेरे यहाँ एक महरी काम करती थी मुन्नी ! उसके साथ उसकी बेटी अनीता भी आती थी उसका हाथ बँटाने ! जब भी मौक़ा मिलता वह कभी बच्चों की कहानी की किताब या कोई पत्रिका उठा लेती और उसके पन्ने पलटने लगती ! मुझे लगा वह रंगीन तस्वीरें देखने के लिये मैग्जीन उठा लेती है ! पर एक दिन गौर से देखा तो वह कुछ बुदबुदा रही थी ! मैंने ऐसे ही कौतुहलवश उससे पूछ लिया, “ तुम्हें पढ़ना आता है ? “
और उसका प्रत्युत्तर आशातीत था, “ हाँ, थोड़ा-थोड़ा आता है ! “
मेरे कहने पर कुछ गलत-सलत कुछ सही उसने मुझे थोड़ा सा पढ़ कर दिखाया ! मेरी सोच को दिशा देने के लिये वह एक टर्निंग पॉइंट था ! मैंने उसकी माँ से पूछा इसे पढ़ाती क्यों नहीं हो तो उसकी अंतहीन दुःख भरी कहानी शुरू हो गयी ! पति शराब पी पी कर इतना बीमार है कि उसके दवा इलाज में ही सारे रुपये खर्च हो जाते हैं ! अनीता के अलावा तीन बच्चे और भी हैं ! बस एक बेटे का दाखिला कराया है स्कूल में ! अनीता को साथ ले आती है मदद के लिये ! दूसरी लड़की घर और छोटे बच्चे को सम्हालती है ! सुन कर मुझे दुःख हुआ !
मैंने अनीता से पूछा, “क्या तुम पढ़ना चाहती हो ?” और उस वक्त उसकी आँखों में जो चमक मैंने देखी थी वह अभी तक मेरे ज़ेहन में बिलकुल सुरक्षित है ! मैंने पहले घर पर रोज उसे दिन में एक दो घण्टे पढ़ा कर तैयारी करवाई और नया सत्र आरम्भ होते ही पास के एक अच्छे स्कूल में वहाँ की प्रधानाध्यापिका से मिल कर उसका दाखिला तीसरी कक्षा में करा दिया ! उसकी फीस, स्कूल यूनीफ़ॉर्म, कॉपी किताबें और अन्य सभी चीज़ों का दायित्व मैंने स्वयम् सम्हाल लिया ! रोज घर पर बुला कर उसे पढ़ाना, होम वर्क कराना, उसके हैण्ड क्राफ्ट के काम में उसकी मदद करना यह सब मेरी दिनचर्या के अनिवार्य अंग हो चुके थे ! बीच-बीच में स्कूल जाकर मैं उसकी टीचर्स से मिल कर उसकी रिपोर्ट भी लेती रहती थी ! बहुत बढ़िया तो नहीं लेकिन वह क्लास में ठीक-ठीक चल रही थी ! इसी तरह दो साल गुजर गये और अनीता पाँचवी कक्षा में आ गयी ! मेरे मन में बड़ा संतोष था कि मैं एक पुण्य का काम कर रही हूँ ! और सोचा था कि इसे कम से कम ग्रेजुएट तो ज़रूर बना दूँगी ! सब कुछ मन के मुताबिक़ चल रहा था कि एक दिन मुन्नी खूब सजी-धजी एक निमंत्रण पत्रिका हाथ में लिये चौड़ी सी मुस्कान बिखेरती उपस्थित हो गयी, “ अनीता की सगाई कर दी है बहूजी आज ! अगले महीने में ब्याह की तारीख निकली है ! आपको ज़रूर आना है ! “
क्या कहूँ समझ नहीं पा रही थी ! इस बालिका वधु के ब्याह की खबर पर खुशी व्यक्त कर उसे बधाई दूँ या एक संभावना से भरपूर आकार लेते व्यक्तित्व के मटियामेट हो जाने के लिये दुःख मनाऊँ ! और फिर अगले महीने अनीता की शादी हो गयी और वह पढ़ाई अधूरी छोड़ अपनी ससुराल चली गयी ! कुछ दिन के बाद मुन्नी भी मेरा काम छोड़ गयी ! उसके बाद आठ दस साल गुजर गये होंगे ! मेरी उससे मुलाक़ात नहीं हुई ! एक दिन अचानक वह रास्ते में मिल गयी ! मैंने अनीता के हाल चाल पूछे तो बोली राजी खुशी है अपने घर में ! मैंने पूछा, “कुछ पढ़ाई लिखाई आगे की उसने या सब छोड़ दिया !”
“ अरे कहाँ बहूजी ! चार-चार बच्चे हैं उसके पास ! उन्हें पढ़ायेगी कि खुद पढ़ेगी ! “
मन कसैला हो आया था ! मेरे सुंदर सपने का पटाक्षेप हो चुका था !
आज की मेरी यह रचना ऐसी ही बच्चियों के मन की दमित इच्छओं की प्रतिध्वनि है !

अनुनय

माँ तू देख मुझे भी अब तो लिखना पढ़ना आता है,
भैया जैसा मुझको क ख ग घ लिखना आता है !

नहीं भेजती मुझको तू स्कूल मगर ऐसा क्यों है ?
सारे घर का काम सदा मुझको करना पड़ता क्यों है ?

सब कहते मैं भैया से भी ज्यादह बुद्धी वाली हूँ,
फिर क्यों तुझको माँ लगती मैं निपट अकल से खाली हूँ !

मुझको भी अच्छी लगती है पुस्तक में लिक्खी हर बात,
भैया पढ़ता जोर-जोर से, हो जाती हैं मुझको याद !

मैं भी खूब इनाम लाऊँगी भेजेगी जो तू स्कूल,
अव्वल आऊँगी कक्षा में, नहीं करूँगी कोई भूल !

वापिस घर आकर फिर माँ मैं तेरा हाथ बटाऊँगी,
पर पढ़ने दे मुझको माँ मैं बन कर ‘कुछ’ दिखलाऊँगी !

साधना वैद

Tuesday, November 23, 2010

अब और नहीं

अपने अंतर महल की रसोई में
हर आम भारतीय नारी ने
अपने सपनों की आँच को
सुलगा कर चूल्हा जलाया है,
और कर्तव्यों की कढ़ाही में
अपनी खुशियों और अरमानों
का छौंक लगा कर अपनी
सम्पूर्ण निष्ठा और लगन,
प्रतिभा और समर्पण,
सद्भावना और प्यार के साथ
समस्त परिवार के लिये
आजीवन सुस्वादिष्ट
व्यंजनो को पकाया है !

महज़ इस आस में कि
कभी तो कोई उसके
समर्पण की कद्र करेगा,
उसके अनमोल असाध्य
श्रम को समझेगा, सराहेगा
उसकी कोमल भावनाओं का
सम्मान करेगा !

लेकिन अक्सर यह आशा
धूमिल होते-होते
वक्त की स्लेट से
बिल्कुल ही मिट जाती है
और उस नारी की
प्रत्याशा भी क्षीण होकर
दम तोड़ जाती है !
क्योंकि प्रशंसा के बदले
वह पाती है
उपालंभ और उलाहने,
व्यंग और कटूक्तियां,
तिरस्कार और अवहेलना !

तभी एक आक्रोश उसके मन में
जन्म लेता है और कहीं
अंतरतम की गहराई से
विद्रोह के स्वर फूटते हैं,
“बस बहुत हो गया,
अब और नहीं !”
अब उसे अपनी खुशियों का
और बलिदान नहीं करना है !
अब उसे हर व्यंजन अपनी
खुशियों और अरमानों से सजा कर
किसी और के लिये नहीं
केवल अपने लिये बनाना है
जिससे उसे सुख मिले
उसे संतुष्टि प्राप्त हो
और अपनी नज़रों में उसका
अपना मान बढ़े !

साधना वैद

Saturday, November 20, 2010

जिजीविषा

शुष्क तपते रेगिस्तान के
अनंत अपरिमित विस्तार में
ना जाने क्यों मुझे
अब भी कहीं न कहीं
एक नन्हे से नखलिस्तान
के मिल जाने की आस है
जहां स्वर्गिक सौंदर्य से ओत प्रोत
सुरभित सुवासित रंग-बिरंगे
फूलों का एक सुखदायी उद्यान
लहलहा रहा होगा !

सातों महासागरों की अथाह
अपार खारी जलनिधि में
प्यास से चटकते
मेरे चिर तृषित अधरों को
ना जाने क्यों आज भी
एक मीठे जल की
अमृतधारा के मिल जाने की
जिद्दी सी आस है जो मेरे
प्यास से चटकते होंठों की
तृषा बुझा देगी !

विषैले कटीले तीक्ष्ण
कैक्टसों के विस्तृत वन की
चुभन भरी फिजां में
ना जाने क्यों मुझे
आज भी माँ के
नरम, मुलायम, रेशमी आँचल के
ममतामय, स्नेहिल, स्निग्ध,
सहलाते से कोमल
स्पर्श की आस है
जो कैक्टसों की खंरोंच से
रक्तरंजित मेरे शरीर को
बेहद प्यार से लपेट लेगा !

सदियों से सूखाग्रस्त घोषित
कठोर चट्टानी बंजर भू भाग में
ना जाने क्यों मुझे
अभी भी चंचल चपल
कल-कल छल-छल बहती
मदमाती इठलाती वेगवान
एक जीवनदायी जलधारा के
उद्भूत होने की आस है
जो उद्दाम प्रवाह के साथ
अपना मार्ग स्वयं विस्तीर्ण करती
निर्बाध नि:शंक अपनी
मंजिल की ओर बहती हो !

लेकिन ना जाने क्यों
वर्षों से तुम्हारी
धारदार, पैनी, कड़वी और
विष बुझी वाणी के
तीखे और असहनीय प्रहारों में
मुझे कभी वह मधुरता और प्यार,
हितचिंता और शुभकामना
दिखाई नहीं देती
जिसके दावे की आड़ में
मैं अब तक इसे सहती आई हूँ
लेकिन लाख कोशिश करने पर भी
कभी महसूस नहीं कर पाई !


साधना वैद

Thursday, November 18, 2010

चंद शिकवे

चंद शिकवे हैं हमें आपकी इनायत से ,
कभी तो हाले दिल फुर्सत से सुनाया होता !

उजाड़े आशियाने अनगिनत परिंदों के ,
कोई एक पेड़ मौहब्बत से लगाया होता !

चुभोये दर्द के नश्तर तुम्हारी नफरत ने ,
कभी दिल प्यार की दौलत से सजाया होता !

खिलाए भोज बड़े मंदिरों के पण्डों को ,
कभी भूखों को किसी रोज खिलाया होता !

जलाए सैकड़ों दीपक किया रौशन घर को ,
दिया एक दीन की कुटिया में जलाया होता !

उठाये बोझ फिरा करते हो अपने दिल का ,
कभी तो बोझ किसी सर का उठाया होता !

किये थे वादे जो तुमने महज़ सुनाने को ,
कोई वादा तो कभी मन से निभाया होता !

सुना है बाँटते फिरते हो मौहब्बत अपनी ,
किसी मजलूम को सीने से लगाया होता !

साधना वैद

Sunday, November 14, 2010

बाल दिवस – बच्चों की नज़र में

बच्चों का बहु प्रतीक्षित बाल दिवस फिर से आ पहुँचा है और बच्चे खुश हैं कि स्कूल में आज खूब मज़े आने वाले हैं उन्हें यूनीफ़ार्म नहीं पहननी होगी ! रंगीन कपडे पहन कर जा सकेंगे ! अपनी सबसे खूबसूरत ड्रेस पहनने का और सब दोस्तों को दिखा कर रौब जमाने का मौक़ा मिला है जिसे कोई भी गँवाना नहीं चाहता ! स्कूल में मिठाई मिलेगी और कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होंगे ! आज के दिन टीचर्स की झिड़कियों और पढ़ाई के नीरस क्रम में कुछ ब्रेक लगेगा ! शायद किसी स्कूल में बच्चों को फिल्म दिखाई जाये या किसी स्कूल में बच्चों को पिकनिक पर ले जाया जाए ! जो कुछ भी हो बस आज खूब मस्ती होगी और खूब धमाल होगा ! आज के बच्चों के लिये ‘बाल दिवस’ का इतना ही महत्त्व है !
कल का अखबार देख कर दुःख हुआ कि शहर के नामी गिरामी स्कूलों के बच्चों से जब यह पूछा गया कि बाल दिवस क्यों मनाया जाता है तो अधिकाँश बच्चे इसका सही उत्तर नहीं दे पाए ! कई बच्चों में से केवल दो ही बच्चे बता पाये कि नेहरू जी के जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है क्योंकि वे बच्चों से बहुत प्यार करते थे ! आश्चर्य होता है कि स्कूल्स में शिक्षक बच्चों को क्या पढ़ाते हैं और बच्चे क्या ग्रहण करते हैं ! जिस दिवस को हर साल इतने जोर शोर से मनाया जाता है, जिसके कार्यक्रमों के लिये कई दिन पहले से रिहर्सल होती रहती है क्या उस दिन के महत्त्व के बारे में बच्चों को कोई जानकारी नहीं दी जाती ! किसीने इसे डॉ. राधाकृष्णन का जन्मदिन बताया तो किसीने इंदिरा गाँधी का तो किसीने कह दिया ‘किसी नेता का जन्मदिन होता है नाम नहीं मालूम !’ दुःख होता है यह देख कर कि हम पौधों के पत्तों को तो खूब चमका रहे हैं धो पोंछ कर पर उनकी जड़ों की उपेक्षा कर रहे हैं ! जिस महामानव ने देश के लिये अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया, अपने शरीर के कण-कण को देश के लिये समर्पित करने के उद्देश्य से जिसने मरणोपरांत अपने शरीर की राख को गंगा में विसर्जित करने के स्थान पर देश की माटी में मिला देने की इच्छा व्यक्त की, उसके बलिदान को कितनी आसानी से सबने भुला दिया ! जब देश के नेताओं ने और प्रबुद्ध वर्ग ने ही नेहरू जी के आदर्शों को तिलांजलि दे दी है और उन्हें भुला दिया है तो बच्चों से क्या उम्मीद रखी जा सकती है ! वे अबोध तो उतना ही जान पायेंगे जितना उन्हें बताया जाएगा ! उनके चरित्र निर्माण का दायित्व, उनकी रुचियों की निखारने का दायित्व और उनकी सोच को एक सार्थक दिशा देने का दायित्व किसका है ? क्या शिक्षक गण और माता पिता अपने इस कर्तव्य को भूल गये हैं ? वरना क्या कारण है कि आज के बच्चे जितना अभिनेता अभिनेत्रियों के बारे में जानकारी रखते हैं अपने देश के नेताओं के बारे में कुछ भी नहीं जानते ! क्या हमें अपनी शिक्षा प्रणाली में कुछ सुधार लाने की ज़रूरत नहीं है या फिर माता पिता को भी अपने बच्चों के सामान्य ज्ञान के सन्दर्भ में कोई दिलचस्पी नहीं रह गयी है ?

साधना वैद

Wednesday, November 10, 2010

अबूझे सवाल

तुमने ही पुकारा था तब सौ बार हमें,
जब प्यार नहीं था तो जताया क्यों था !

रहने को ठिकाने थे बहुत मेरे लिये,
आँखों में बसा कर के गिराया क्यों था !

हमसे तो वफ़ा की बहुत तकरीरें कीं,
जो खुद नहीं सीखे वो सिखाया क्यों था !

मुझको तो ज़मीं से भी बहुत निस्बत थी,
फिर ऊँचे फलक पर यूँ बिठाया क्यों था !

जब वक्त की आँधी से बचाना ही न था,
बुझने के लिये दीप जलाया क्यों था !

जो इश्क इबादत सा कभी लगता था,
उस इश्क की कसमों को भुलाया क्यों था !

जिस नाम की कीमत बहुत थी नज़रों में,
दिल पर उसे लिख कर के मिटाया क्यों था !

तुम थे ही नहीं प्यार के काबिल फिर भी,
हर रस्म को इस दिल ने निभाया क्यों था !

साधना वैद

Monday, November 8, 2010

कभी तो सोचिये

हमारे देश में एक वक्त ऐसा भी आया था जब सम्पूर्ण भारत भीषण खाद्य समस्या से जूझ रहा था ! खाद्यान्न आयात करने के लिये हमें अन्य संपन्न देशों की मुखापेक्षा करनी पड़ती थी किन्तु फिर भी गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले अनेक भारतवासियों को आधे पेट भूखे रह कर या कंद मूल खाकर अपनी जठराग्नि को शांत करना पड़ता था ! तब हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री थे ! मुझे याद है उन्होंने आह्वान किया था कि यदि सभी लोग सप्ताह में एक दिन एक समय का भोजन त्याग दें तो खाद्य समस्या के निवारण में बहुत मदद मिलेगी और कितने ही भूखे लोगों की क्षुधा शांत करने का उपाय संभव हो सकेगा ! उनकी एक पुकार पर अनेक भारतवासियों ने सोमवार की शाम को भोजन ना करने का संकल्प लिया था और उस दिन हमारे यहाँ भी घर के सभी सदस्य व्रत रखते थे ! इस व्रत को जितनी भावना और ईमानदारी के साथ हम लोग रखते थे शायद किसी भी धार्मिक व्रत को इस तरह हमने कभी नहीं रखा होगा ! हमें याद है कि कैसे थाली में जूठा खाना छोडने के लिये डाँट पडती थी और खाना परोसने से पहले कई बार हिदायत दी जाती थी कि उतना ही खाना लेना जितना खा सको ! मुझे यह भी याद है कि एक सर्वे के निष्कर्ष में यह तथ्य भी सामने आया था कि संपन्न लोग यदि ओवर ईटिंग ना करें और खाना बर्बाद ना करें तो खाद्य समस्या से आसानी से निपटा जा सकता है ! उस समय की यादें आज भी मन मस्तिष्क में ताज़ा हैं ! कैसे हम सब सहेलियां मिल कर इस गंभीर समस्या पर तर्क वितर्क करते थे और स्कूल में लंच टाइम में जो लडकी खाना फेंकते हुए या जूठा छोडते हुए दिखाई दे जाती थी कैसे बाकी सब लडकियां मिल कर जी भर कर उसकी भर्त्सना कर उस पर टूट पड़ते थे ! उन दिनों के संस्कार आज भी मुझमें ज्यों के त्यों जीवित हैं और आज भी मुझे थाली में जूठन छोडना या खाना बर्बाद करना बिलकुल अच्छा नहीं लगता !
देश में खाद्य समस्या का राग अब सुनाई नहीं देता ! लेकिन हालात में सुधार शायद अभी भी बहुत अधिक नहीं हुआ है ! अब खाद्यान्न के मामले में देश आत्मनिर्भर तो हो गया है लेकिन यह अनाज गरीबों के मुख तक अब भी नहीं पहुँच पाता ! वह या तो मुनाफाखोर व्यापारियों को औने पौने दामों में उपलब्ध करा दिया जाता है जिसकी चौगुनी कीमत बढ़ा कर वे उसे बाज़ार में बेचते हैं या फिर वह सरकारी गोदामों नें सड़ कर अंतत: समुद्र के हवाले कर दिया जाता है ! किसी भी दशा में वह गरीब आदमी की पहुँच से दूर होता है ! ऐसे हालात में क्या हमें अपनी आदतों और तौर तरीकों पर एक बार चिंतन मनन नहीं करना चाहिए ?
आजकल किसी भी आयोजन में दावतों का स्वरुप बिलकुल बदल गया है ! इतने असंख्य व्यंजन मेनू में होते हैं कि सभी को तो चखना भी संभव नहीं होता ! पहले तो स्टार्टर्स के नाम पर अनेक प्रकार के चाट के आइटम होते हैं ! चाट के शौक़ीन लोग इन आइटम्स पर टूट पड़ते हैं और स्वाद स्वाद में ज़रूरत से कहीं ज्यादह अपनी प्लेटों में भर लेते हैं और जब खाया नहीं जाता तो भरी भराई प्लेटें नीचे सरका देते हैं ! इसके बाद बारी आती है मेन कोर्स की ! पेट तो तरह तरह की चाट से ही भर जाता है लेकिन अगर मेन कोर्स का खाना नहीं खाया तब तो समझिए जीवन ही निष्फल हो गया ! और फिर वही होता है जो नहीं होना चाहिए ! अगर आप ध्यान देंगे तो पायेंगे कि खाना खाकर अपनी प्लेट को जब लोग बास्केट में रखते हैं तो उन प्लेटों में इतना खाना भरा पड़ा होता है कि किसी एक व्यक्ति का पेट आसानी से भर जाए ! ऐसी कितनी प्लेटों का जूठा खाना कूड़े के ढेर पर फेंक दिया जाता है और कई पेटों की भूख के निवारण का साधन इस तरह बर्बाद कर दिया जाता है ! क्या यह विचारणीय नहीं है कि अपनी प्लेट में सिर्फ उतना ही भोजन परसें कि जूठा बचे ही नहीं ! और उससे भी बड़ी ज़रूरत इस बात पर ध्यान देने की भी है कि क्या दावतों का स्वरुप और मेनू छोटा नहीं किया जा सकता कि खाने की इस तरह से बर्बादी ना हो ? मैंने ऐसे आयोजन स्थलों के आस पास कई गरीब और भूखे बच्चों और वयस्कों को भोजन की आशा में घूमते हुए देखा है जिन्हें निर्ममता से वहाँ से दूर खदेड़ दिया जाता है लेकिन क्या हम इतने असंवेदनशील हो गए हैं कि हमें किसीकी भूख प्यास, दुःख दर्द अब बिलकुल नहीं छूते ? ना ही अपना गैर जिम्मेदाराना व्यवहार हमें अखरता है जब हम भोजन को बर्बाद कर फेंकने में ज़रा भी नहीं हिचकते और ना ही किसी गरीब को खाना देने की बजाय उसे अपमानित कर दुरदुरा कर भगाने में कोई शर्म महसूस होती है !
भगवान का आप धन्यवाद करिये कि उसने आपको इतना सक्षम और संपन्न बनाया है कि आप इतनी आलीशान दावतें खिलाने और खाने की हैसियत रखते हैं लेकिन अपनी विभिन्न प्रकार के व्यजनों से भरी जूठी प्लेट फेंकते वक्त इतना ज़रूर याद रखियेगा कि कहीं कुछ ऐसे इंसान भी हैं जिन्हें इस भोजन की सख्त ज़रूरत है और अगर आपने इसे इस तरह से बर्बाद न किया होता तो शायद आज किसी भूखे का पेट भर जाता !

साधना वैद