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Wednesday, March 9, 2011

मसीहा


मैं तो सदैव दीन दुखियों का
मसीहा बन के रहा हूँ
सबकी समस्याओं के समाधान
मैंने सुझाये हैं ,
तुम्हारे दुखों की आँच
पता नहीं कैसे
मुझ तक पहुँच ही नहीं पाई
और क्या करूँ
मैं भी तो देख नहीं पाया !
और यह तुम्हारे जख्मों से इतना
लहू क्यों बह रहा है ?
मैं तो सदा सबके लिये
मरहम लिये खड़ा रहा हूँ
बस तुम्हारे ज़ख्म ही
बिना दवा के रह गये
क्योंकि शायद कोई और
तुमसे भी अधिक ज़रूरतमंद था
जिसे मेरी दवा की ज़रूरत थी !
मैंने तो सारे परिवेश को
महकाने के लिये
सुगन्धित फूलों का
बागीचा लगाया था
तुम्हारे दामन में इतने काँटे
कहाँ से आ गये
और कौन तुम्हें दे गया
मुझे कैसे पता चलता
मैं तो बाकी सबके लिये
गुलदस्ते बनाने में ही व्यस्त रहा !
तुम इस सबके सोग में
यूँ ही डूबे रहो
यह भी मुझे कहाँ मंज़ूर है ,
मुझे अपने दुखों का
उत्तरदायी मानो
यह भी कहाँ का न्याय है ,
जब मैंने कुछ देखा ही नहीं
तो मैं गलत कैसे हुआ ,
इस सबके लिये
तुम और सिर्फ तुम ही
ज़िम्मेदार हो
क्योंकि तुम्हारी सोच ही गलत है
और तुम्हें ज़िंदगी को
जीना आता ही नहीं !
मैं तो बाकी सबके जीवन को
वृहद अर्थों और सन्दर्भों में
सहेजता सँवारता रहा !
तुम्हारी तकलीफों के पीछे
मैं नहीं तुम्हारी अपनी
रुग्ण मानसिकता है !
हो सके तो तुम खुद ही इसे
बदल डालो !

साधना वैद




19 comments :

  1. तुम्हारी तकलीफों के पीछे
    मैं नहीं तुम्हारी अपनी
    रुग्ण मानसिकता है !
    हो सके तो तुम खुद ही इसे
    बदल डालो !

    सटीक बात -
    बहुत सुंदर लिखा है .

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  2. बहुत अच्छे लगे भाव और रचना के शब्द चयन |बधाई
    आशा

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  3. तुम्हारी तकलीफों के पीछे
    मैं नहीं तुम्हारी अपनी
    रुग्ण मानसिकता है !
    हो सके तो तुम खुद ही इसे
    बदल डालो !

    संगीता जी एकदम सही कहा अपनी समस्याओं का हल तो स्वयं ही निकालना पड़ेगा.

    ReplyDelete
  4. जब मैंने कुछ देखा ही नहीं
    तो मैं गलत कैसे हुआ ,
    इस सबके लिये
    तुम और सिर्फ तुम ही
    ज़िम्मेदार हो
    क्योंकि तुम्हारी सोच ही गलत है
    और तुम्हें ज़िंदगी को
    जीना आता ही नहीं !
    adbhut... bhaw se paripurn rachna

    ReplyDelete
  5. आंखे दिल की बात बिना शब्दों के कह जाती हैं |
    किसी की चुप्पी में फिर भी हमें अपनी अवहेलना लगती है |आपनें भावपूर्ण रचना के माध्यम से अनेक
    लोगो के दिल की बात लिखी है|

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  6. बीना शर्माMarch 10, 2011 at 1:38 PM

    हर बार टिप्पणी देते मेरेहाथ रुक -रुक जाते हैं पता हैं क्यों मुझे हर बार बहुत पीड़ा होती है कि सारे के सारे दुःख क्या केवल महिलाओं के हिस्से में ही आते हैं ?और फिर हमें ही अपने को चुप रखकर सामने वाले को हमेशा बचाना ही होता है | आज की कविता में भी दुःख का कारण सामने वाला नहीं रहा |उसका कारण भी अपनी रुग्ण मानसिकता हो गई | अरे हम इतने अधिक आदर्शवादी क्यों हो गए हैं कि हमें गलत को गलत कहने में भी संकोच होता है | पता नहीं हम कभी सुधरेंगे भी या नहीं या यूं ही शब्दों में अपने दुःख को लबादा पहनाते रहेंगे?

    ReplyDelete
  7. बीना शर्माMarch 10, 2011 at 1:38 PM

    हर बार टिप्पणी देते मेरेहाथ रुक -रुक जाते हैं पता हैं क्यों मुझे हर बार बहुत पीड़ा होती है कि सारे के सारे दुःख क्या केवल महिलाओं के हिस्से में ही आते हैं ?और फिर हमें ही अपने को चुप रखकर सामने वाले को हमेशा बचाना ही होता है | आज की कविता में भी दुःख का कारण सामने वाला नहीं रहा |उसका कारण भी अपनी रुग्ण मानसिकता हो गई | अरे हम इतने अधिक आदर्शवादी क्यों हो गए हैं कि हमें गलत को गलत कहने में भी संकोच होता है | पता नहीं हम कभी सुधरेंगे भी या नहीं या यूं ही शब्दों में अपने दुःख को लबादा पहनाते रहेंगे?

    ReplyDelete
  8. क्योंकि शायद कोई और
    तुमसे भी अधिक ज़रूरतमंद था
    जिसे मेरी दवा की ज़रूरत थी !

    यदि अपनी ज़रूरतों से ज्यादा दूसरे की ज़रूरत का ख्याल रहे तो सारी शिकायत ही बेमानी है ...

    कहाँ ठहराते हैं दूसरों को दोषी ? फिर भी शायद मन ही मन घुटते हुए हो जाती होगी सोच रुग्ण ...

    बहुत वेदना है इस रचना में ... गहन चिंतन ..

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  9. क्योंकि शायद कोई और
    तुमसे भी अधिक ज़रूरतमंद था
    जिसे मेरी दवा की ज़रूरत थी ..

    samvednaaon ki behatreen prastuti .

    .

    ReplyDelete
  10. दिल तक उतर जाने वाली रचना..
    .किसी से कोई आशा ही क्यूँ....हमसे भी जरूरतमंद हैं यहाँ...बस खुद को ही बदल डालना है...
    बढ़िया संदेश छुपा है कविता में

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  11. अर्थपूर्ण रचना.....!!

    सुन्दर अभिव्यक्ति.....

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  12. हाँ सब दूसरों को ही बदलने का उपदेश देते हैं खुद कोई बदलना नही चाहता। सुन्दर रचना बधाई

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  13. har dukh ko sahan karne ki har insaan ki ek seema hoti hai...jab vo dukh, avhelna, berukhi, vyakulta anant dukho ko paar karti hui had par kar jati hai to insan ko na dukh ki anubhooti hoti hai aur na sukh ki...aur is samay insaan dukh se upar uth chuka hota hai...to jab ek dukh ko itna sah liya to vo sthiti kyu nahi aati...kyu insaan kisi ki apeksha ko paane ke liye mrig trishna ki si baichaini liye bhatakta rahta hai? kyu nahi vo nispreh ho kar jeena seekh jata...

    bas yahi sawal man me uthe aapki rachna padh kar...jo kah dale. apki rachna apne sath mujhe kahin door tak kheench le gayi...aur ye antardwand isi ka natija hai..ab jhailiye :)

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  14. मैं तो सदा सबके लिये
    मरहम लिये खड़ा रहा हूँ
    बस तुम्हारे ज़ख्म ही
    बिना दवा के रह गये
    क्योंकि शायद कोई और
    तुमसे भी अधिक ज़रूरतमंद था
    जिसे मेरी दवा की ज़रूरत थी !
    वाह वाह... बहुत सुंदर भाव लिये हे आप की यह सुंदर रचना, अगर सारा समाज ही ऎसा हो जाये तो बात ही क्या... ऎसे लोग तकलीफ़ो मे भी दुसरो की मुस्कुराहट देख कर खुश रहते हे

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  15. bhawuk kar dene ki chamta hai aapki kavita men.

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  16. आदरणीय साधना जी , सादर प्रणाम

    आपके बारे में हमें "भारतीय ब्लॉग लेखक मंच" पर शिखा कौशिक व शालिनी कौशिक जी द्वारा लिखे गए पोस्ट के माध्यम से जानकारी मिली, जिसका लिंक है...... http://www.upkhabar.in/2011/03/jay-ho-part-2.html

    इस ब्लॉग की परिकल्पना हमने एक भारतीय ब्लॉग परिवार के रूप में की है. हम चाहते है की इस परिवार से प्रत्येक वह भारतीय जुड़े जिसे अपने देश के प्रति प्रेम, समाज को एक नजरिये से देखने की चाहत, हिन्दू-मुस्लिम न होकर पहले वह भारतीय हो, जिसे खुद को हिन्दुस्तानी कहने पर गर्व हो, जो इंसानियत धर्म को मानता हो. और जो अन्याय, जुल्म की खिलाफत करना जानता हो, जो विवादित बातों से परे हो, जो दूसरी की भावनाओ का सम्मान करना जानता हो.

    और इस परिवार में दोस्त, भाई,बहन, माँ, बेटी जैसे मर्यादित रिश्तो का मान रख सके.

    धार्मिक विवादों से परे एक ऐसा परिवार जिसमे आत्मिक लगाव हो..........

    मैं इस बृहद परिवार का एक छोटा सा सदस्य आपको निमंत्रण देने आया हूँ. आपसे अनुरोध है कि इस परिवार को अपना आशीर्वाद व सहयोग देने के लिए follower व लेखक बन कर हमारा मान बढ़ाएं...साथ ही मार्गदर्शन करें.


    आपकी प्रतीक्षा में...........

    हरीश सिंह


    संस्थापक/संयोजक -- "भारतीय ब्लॉग लेखक मंच" www.upkhabar.in/

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  17. मैं तो सदा सबके लिये
    मरहम लिये खड़ा रहा हूँ
    बस तुम्हारे ज़ख्म ही
    बिना दवा के रह गये
    क्योंकि शायद कोई और
    तुमसे भी अधिक ज़रूरतमंद था
    .........................
    बहुत ही सुन्दर रचना...मेरे पास हर बार आपकी रचना के लिए एक ही शब्द है..
    अदभुत.
    ११ मार्च

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  18. जिन्हें जीना का सही तरीका पता है , हर दुःख , निराशा में भी सुख और उम्मीद की किरण ढूंढ लेते हैं और कभी ईश्वर या मसीहा को अपने दुःख का जिम्मेदार नहीं ठहराते , उनसे मदद जरुर मांगते हैं ...
    ज्यादातर अपने दुखों की वजह हम खुद ही होते हैं ,यदि खुद को सुधार लिया जाए , तो जिन्दगी सरल और आनंदमय हो जाती है ...
    आशावादी सोच की सार्थक कविता ..
    आभार !

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