आज
एक
अरसे के बाद
हिचकिचाते
कदमों से
मैं
तुम्हारे मंदिर की
इन
सीढ़ियों पर
चढ़ने
का उपक्रम
कर रही हूँ !
नयन
सूने हैं ,
हृदय
भावशून्य है ,
हथेलियाँ
रिक्त हैं !
हाथों
में ना तो
पूजा
का थाल है ,
ना
पत्र पुष्प ,
ना
धूप दीप ,
ना
ही नैवेद्य !
यत्न
करने पर भी
कंठ
से कोई
भक्तिगीत
नहीं फूट रहा !
मस्तिष्क
सुषुप्त है ,
शब्द
खो गये हैं ,
किसी
प्रार्थना के
प्रतिफलित
होने की
आशा
भी निर्जीव है !
लेकिन
जाने
कहाँ से
विश्वास
का एक
छूटा
हुआ सिरा
कल
आकर
फिर मेरे
हाथों से
टकरा
गया
और
हठपूर्वक
मेरी
उँगली थाम
मुझे
इस मंदिर की
चौखट
तक लाकर
छोड़
गया !
मेरे
देवता!
बस
एक प्रार्थना है
तुम
मेरी आन
रखो
ना रखो
उस
विश्वास
की आन
ज़रूर रख लेना
जिसे
तुम पर
इतना
विश्वास है !
साधना
वैद !