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Wednesday, February 29, 2012

यह तो कहो






रोशनी का बहुत पीछे छूटा

एक नन्हा सा कतरा

कितनी दूर तक

मेरी राह रोशन कर पायेगा

यह तो कहो !

दूर बादल की आँख से टपकी

बारिश की एक नन्हीं सी बूँद

सहरा से सुलगते

मेरे तन मन को

कितना शीतल कर पायेगी

यह तो कहो !

प्राणवायु का एक

अदना सा झोंका

जो सदियों बाद

मेरी घुटती साँसों को

नसीब से मिला था

कब तक मुझे

जीवित रख पायेगा

यह तो कहो !

भूलवश मुख से उच्छ्वसित

प्रेम की वंचना से सिक्त

नितांत एकाकी,

निर्बल, अस्फुट सा शब्द

मेरे सुदीर्घ जीवन के

पल पल में संचित

कटुता के विशाल पुन्ज को

निमिष भर में ही

कैसे धो डालेगा

यह तो कहो !

मेरी अवरुद्ध हुई साँसों को,

मेरी मुँदती हुई पलकों को,

मेरी डूबती हुई नब्ज़ को

ज़रूरत है उस आवाज़ की

जो निष्प्राण देह में भी

पल भर में जाने कैसे

जीवन का संचार

कर देती है ,

वह चिर प्रतीक्षित आवाज़

मुझे कब सुनाई देगी

यह तो कहो !

साधना वैद !

Saturday, February 25, 2012

चलो चलें माँ .... ( एक लघु कथा )



नन्हा लंगूर डिम्पी अपने कान में उंगली डाले ज़ोर ज़ोर से चीख रहा था ! जिस पेड़ पर उसका घर था उसके नीचे बहुत सारे बच्चे होली के रंगों से रंगे पुते ढोल बजा बजा कर हुड़दंग मचा रहे थे ! कुछ बच्चों के हाथ में कुल्हाड़ी थी तो कुछ के हाथ में धारदार बाँख ! ये सब होली जलाने के लिये लकड़ी जमा करने निकले थे ! डिम्पी डर से थर थर काँप रहा था ! डिम्पी की आवाज़ सुन दूर से लम्बी लम्बी छलांगे भर पल भर में उसकी माँ उसके पास पहुँच गयी और ज़ोर से उसे अपनी छाती से चिपटा लिया ! बच्चों का हुजूम देख माँ के माथे पर भी चिंता की लकीरें उभर आयी थीं !
सहमे डिम्पी ने माँ के गले लग पूछा, “ माँ क्या ये फिर से हमारा घर तोड़ देंगे ? अब हम किधर जायेंगे ? माँ पहले हम कितने खुश थे ! शहर के पास वाले जंगल में जहाँ हमारा घर था वहाँ मैं अपने दोस्तों के साथ कितना खेलता था ! वहाँ कितने सारे पेड़ थे ! हम सब सारे पेड़ों पर कितनी धमाचौकड़ी मचाते थे ! लेकिन एक दिन वहाँ कुछ लोग आये ! ज़मीन की नाप जोख हुई और पता चला कि वहाँ कोई कॉलेज बनाया जायेगा ! उसके बाद एक दिन बहुत सारे लोगों ने आकर वहाँ के सारे पेड़ काट डाले ! हम लोगों के घर भी उजड़ गये ! हम शहर से और दूर वाले जंगल में चले गये ! मेरे सारे दोस्त बिछड़ गये लेकिन फिर भी हम वहाँ मन लगा रहे थे कि कुछ दिनों के बाद फिर से वही सब कुछ दोहराया जाने लगा ! पता चला इस बार वहाँ रिहाइशी कॉलॉनी बनायी जा रही थी जो अपने आप में एक शहर की तरह थी ! इसमें स्कूल, पार्क, अस्पताल, स्वीमिंग पूल, शॉपिंग मॉल सब बनाये जाने वाले थे ! एक बार फिर हमारे घर बहुत बड़े पैमाने पर उजाड़े गये ! इतने बड़े अभियान के लिये दूर दूर तक जंगल साफ कर दिये गये ! क्यों माँ ये इंसान कभी अपने घर के लिये, कभी अपने घर के खिड़की दरवाज़ों के लिये, कभी फर्नीचर के लिये तो कभी कॉपी किताबों के लिये तो कभी मरने के बाद श्मशान में लाशों को जलाने के लिये हमसे पूछे बिना हमारे घर क्यों उजाड़ देते हैं ? क्या इनकी सारी ज़रूरतें हमारे घरों से ही पूरी होती हैं ? हम कभी भूले भटके इनके घर के बगीचे में घुस जाते हैं तो ये बम पटाखे पत्थर डंडे सब लेकर हम पर क्यों पिल पड़ते हैं माँ ? ये हमारे सारे खाने पीने के साधन वाले पेड़ अपनी ज़रूरत के लिये काट डालते हैं और हम अगर इनके घर से एक केला भी उठा लें तो ये हमें पकड़वाने के लिये नगर निगम तक शिकायत लेकर क्यों पहुँच जाते हैं माँ ? क्या इंसानों की तरह हम वन्य जीव अपने बुनियादी अधिकारों के लिये नहीं लड़ सकते ? सबसे होशियार माने जाने वाले इंसान की सोच इतनी तंग और छोटी क्यों होती है माँ ? तुम बताओ माँ क्या कहीं कोई जगह ऐसी है जहाँ हम इस आतंकी इंसान के अत्याचारों से बच कर सुकून से रह सकें ? जहाँ यह स्वार्थी इंसान अपनी ज़रूरतों के लिये हमारी शांत सुकून भरी ज़िन्दगी में खलल न डाल सके और मैं चैन से तुम्हारी गोद में सो सकूँ ?
“ चलो चलें माँ सपनों के गाँव में
काँटों से दूर कहीं फूलों की छाँव में ! ”


साधना वैद

Tuesday, February 14, 2012

फागुन


फागुन का मास तो

हर बरस आता है ,

लाल, पीले,

हरे, नीले

रंगों से सराबोर

ना जाने कितने कपड़े

हर साल बाँटती हूँ

फिर भी

नहीं जानती

मेरे मन की

दुग्ध धवल श्वेत चूनर

अभी तक

कोरी की कोरी

ही कैसे रह गयी !

कितना विचित्र

अनुभव है कि

एक प्राणवान शरीर

रंगों से खेल रहा होता है

और एक निष्प्राण आत्मा

नितांत पृथक और

निर्वैयक्तिक हो

असम्पृक्त भाव से

बहुत दूर से

इस फाग को अपने

निस्तेज नेत्रों से

अपलक निहारती

रहती है और

कामना करती है

कभी तो उसके श्याम

उसके आँगन में आयेंगे

और उसके मन की

चूनर पर रंग भरी

अपनी पिचकारी से

सतरंगी फूल बिखेरेंगे !



साधना वैद

Friday, February 10, 2012

तुम मिले जग मिल गया







कुछ मधुर तुम कान में जो कह गये

शूल मन के वेग से सब बह गये !


मलय ने आँचल मेरा लहरा दिया ,

भाव विह्वल गीत सारे हो गये !


पुष्प वासंती हृदय में खिल उठे ,

प्राण सुरभित एक पल में हो गये !


मन विहग ने क्षितिज तक भर ली उड़ान ,

स्वर मुखर हर इक दिशा में हो गये !


पवन पी पीयूष प्याला प्रेम का ,

प्रिय परस की वंचना में खो गये !


नयन उन्मीलित पुलक कर लाज से

प्रिय दरस की साध लेकर खुल गये !


अधर अस्फुट गीत दोहराते रहे ,

स्वप्न सब साकार जैसे हो गये !


निमिष भर को तुम मिले जग मिल गया ,

प्रार्थना के स्वर सफल सब हो गये !



साधना वैद

Sunday, February 5, 2012

क्या आप जानते हैं १०० नंबर भी कभी-कभी काम करता है ?



प्राय: सरकारी विभागों की और व्यवस्था की कमियाँ ही हम सबको दिखाई देती हैं और हम सब अक्सर उनसे जूझते ही नज़र आते हैं और शायद इसीलिये बहुत असंतुष्ट और नाराज़ भी रहते हैं लेकिन आज मुझे कुछ विपरीत सुखद अनुभव हुए हैं जिन्हें मैं आपके साथ बाँटना चाहती हूँ इसीलिए आज कई दिनों के बाद मैंने अपनी प्रिय कुर्सी पर आसन जमा लिया है ! फिर ऐसी घटनाएँ रोज़-रोज़ होती भी तो नहीं हैं !

हर रोज़ की तरह आज भी सामान्य सी ही सुबह थी ! वही दैनंदिन की सामान्य गतिविधियाँ और क्रिया कलाप ! राजन, मेरे पतिदेव, सुबह बगीचे में पेड़ पौधों की काट छाँट में व्यस्त थे ! मैं किचिन में नाश्ता बनाने की तैयारियों में व्यस्त थी ! अचानक पंछियों का एक बड़ा समूह बगीचे के हर छोटे बड़े पेड़ की डालियों पर आकर बैठ गया और ज़ोर-ज़ोर से शोर मचाने लगा ! घना पक्षी अभयारण्य पास में होने के कारण इन दिनों प्रवासी पक्षियों का आवागमन भी बड़े पैमाने पर होता है और कदाचित उनका यही रूट होता है इसलिए अक्सर हमारे बगीचे में भी कभी-कभी विदेशी पक्षी दिखाई दे जाते हैं ! पक्षियों के इस कलरव को मैंने इसी प्रक्रिया का हिस्सा मान कोई विशेष ध्यान नहीं दिया ! राजन को बर्ड वाचिंग का विशेष शौक है ! मुझे उत्साहित होकर उन्होंने बगीचे में बुलाया ! बताने लगे ये चिड़िया सेवेन सिस्टर्स के नाम से जानी जाती है ! तभी कुछ कौए भी आ गये और बंदरों का झुण्ड भी घर की छत और मुंडेर पर डेरा जमाने लगा ! अचानक से इतनी हलचल आसामान्य तो लग रही थी लेकिन कारण कुछ समझ में नहीं आ रहा था ! इतने कौए भी बड़े दिनों के बाद नज़र आये थे ! मुझे संदेह हुआ आसपास कोई जानवर शायद घायल हुआ पड़ा हो ! इसी सोच विचार में उलझी मैं फिर किचिन के कामों में व्यस्त हो गयी ! तभी अचानक इन्होंने जोर से आवाज़ देकर कहा, जल्दी से कैमरा लेकर आओ ! बडा रेयर सीन है ! कैमरा लेकर मैं बाहर गयी तो देखा खिड़की के छज्जे पर एक बहुत ही खूबसूरत और बड़े साइज़ का उल्लू बैठा हुआ है ! अक्सर उल्लू ब्राउन कलर के होते हैं लेकिन यह सफ़ेद रंग का था और चेहरे पर ब्राउन रंग का गोल घेरा बना हुआ था ! इससे पूर्व मैंने इतना बड़ा उल्लू कभी नहीं देखा था ! और वह इतना निश्चल बैठा हुआ था कि एक पल को तो मुझे आभास हुआ जैसे किसीने कोई शो पीस वहाँ पर सजा कर रख दिया है ! वह बिलकुल भी हिल डुल नहीं रहा था ! चिड़ियाँ और कौए उसे देख कर ही शोर मचा रहे थे और बन्दर उस पर घात लगाने की फ़िक्र में थे ! लेकिन इन सबसे बेखबर वह एक मूर्ति की तरह वहाँ बैठा हुआ था !

राजन, मेरे देवर राजेश, घर के अन्य सभी सदस्य और बच्चे सब उस उल्लू को बचाने के लिये सक्रिय हो गये ! बड़े-बड़े बाँस और डंडे लेकर सब बंदरों को भगाने में जुटे हुए थे ! लेकिन नज़र बचते ही वे हमला करने के लिये उल्लू के पास पहुँच जाते थे ! दिन की रोशनी में शायद वह ठीक से खतरे को भाँप नहीं पा रहा था और तटस्थ भाव से उसी जगह पर बैठा हुआ था ! उसे बचाने के लिये मैं भी कृत संकल्प थी लेकिन कोई उपाय समझ में नहीं आ रहा था किससे मदद माँगी जा सकती है ! जब कुछ समझ में नहीं आया तो मैंने १०० नम्बर डायल कर पुलिस से हेल्प माँगी ! उन्हें बताया कि यह लुप्तप्राय प्रजाति का संरक्षित पक्षी है और इस समय उसकी जान खतरे में है ! अगर तुरंत उसे बचाया नहीं गया तो बन्दर उसे मार देंगे ! मेरे स्वर की चिंता से फोन के दूसरे सिरे पर बात करने वाला व्यक्ति शायद कुछ प्रभावित हुआ ! सुखद आश्चर्य हुआ जब उसने न केवल मेरी समस्या को सुना बल्कि मुझे यह भी बताया कि इस सिलसिले में वन विभाग ही मेरी सहायता कर सकता है ! मेरे पास वन विभाग का कोई नंबर नहीं था ! यह भी आशंका थी कि मेरे कहने भर से ही कोई भला क्यों आ जायेगा मदद करने ! अत: मैंने उन्हीं सज्जन से वन विभाग को मेरी समस्या के बारे में सूचित करने के लिये कहा ! प्रत्युत्तर में ना केवल उन्होंने वन विभाग को फोन किया बल्कि मुझे भी बाद में कॉल बैक कर यह बता दिया कि उन्होंने मेरी प्रार्थना को सम्बंधित अधिकारी तक पहुँचा दिया है और वन विभाग का नंबर भी मुझे दे दिया ताकि आवश्यकता पड़ने पर मैं स्वयं भी उनसे संपर्क कर सकूँ ! इसके लिये वे वास्तव में धन्यवाद के पात्र हैं !

सुबह से २-३ घण्टे बीत चुके थे ! घर का हर सदस्य मुस्तैदी से बंदरों को भगाने में और उल्लू के प्राणों की रक्षा में जुटा हुआ था ! वन विभाग का ऑफिस शहर के दूसरे छोर कीठम पर स्थित है ! कई बार संपर्क करने की कोशिश की लेकिन वीक सिगनल की वजह से बात नहीं हो पाई ! अंतत: एक बार संपर्क सफल हुआ और ज्ञात हुआ कि वे लोग पहुँचने ही वाले हैं ! मन में बड़ी जिज्ञासा थी कि एक पक्षी को वे लोग कैसे पकड़ेंगे ! देखा बाइक पर केवल दो लोग आये हैं और वह भी बिलकुल खाली हाथ ! घर पर रखी लकड़ी की ऊँची सीढ़ी (घोड़ी) को उन्होंने खिडकी के सामने लगाया और उस पर चढ़ कर उल्लू को पकड़ने का इरादा बनाया ! सीढ़ी की ऊँचाई, खिड़की के सहारे लगी हुई बेलें और पेड़ और बिजली के तार उनके काम में बाधा डाल रहे थे ! अब तक निंद्रामग्न उल्लू भी पूरी तरह से सचेत हो गया था और जैसे ही बहेलिये ने उसे पकड़ने के लिये हाथ आगे बढ़ाया वह पंख फड़फड़ा कर बगीचे में ही कदम्ब के पेड़ पर जाकर बैठ गया ! हम सब का दिल बैठ गया ! लगा सारी मेहनत पर पानी फिर गया और सारा अभियान असफल हो गया ! इतने घंटे उस उल्लू के साथ उसकी हिफाज़त के लिये बिताने की वजह से अब तक उससे एक अबूझा प्यार का रिश्ता सा कायम हो गया था ! इस दुष्चिन्ता से कि अब तो पेड़ पर यह बन्दर. चील या किसी गिद्ध का शिकार हो जायेगा मन बहुत उद्विग्न हो रहा था ! वन विभाग के कर्मचारियों के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार पर बहुत गुस्सा भी आ रहा था ! क्या ये सचमुच उसे एक शो पीस समझ बैठे थे कि हाथ बढ़ा कर उठा लेंगे ! लेकिन मेरे गुस्से के विपरीत वे बड़े निश्चिन्त भाव से नीचे उतर आये और पूर्ण विश्वास के साथ बोले, अब पेड़ पर से तो हम उसे पकड़ लेंगे !

उनकी इस उद्घोषणा का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था लेकिन फिर भी मैं चुपचाप उनकी सहायता कर रही थी ! उन्होंने मुझ से एक बोरी माँगी ! और दोनों लोग पेड़ के नीचे लकड़ी की घोड़ी लगा कर उस पर चढ़ने लगे ! उल्लू अब पूरी तरह से जाग गया था ! बहेलिया उल्लू की ऊँचाई तक पहुँच उसकी आखों में आँखें डाल उसे घूर रहा था ! उल्लू भी बहेलिये की चाल को समझने की जैसे कोशिश कर रहा था ! तभी पीछे से हाथ घुमा कर तेज़ी से झपट्टा मार बहेलिये ने उल्लू को पंखों से दबोच लिया ! उस समय उल्लू के पंख पूरी तरह से फैले हुए थे और उनकी खूबसूरती से हम सब सम्मोहित थे ! जैसे किसी कुशल चित्रकार ने संगमरमर के सफ़ेद पन्नों पर काले, पीले और ब्राउन कलर्स से सुन्दर चित्रकारी कर दी हो ! जैसे ही उल्लू को सुरक्षित बोरे में डाल कर बोरे का मुँह रस्सी से बाँध दिया गया सारा बगीचा तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा ! इतनी देर में कॉलोनी के सारे पड़ोसी और बच्चे बारी-बारी से आकर उस पक्षी के दर्शन कर गये थे ! और अपने घरों की खिड़कियों से इस अभियान के मूक दर्शक बने हुए थे !

वनविभाग के कर्मचारियों के आत्मविश्वास और दक्षता से हम सब अभिभूत थे ! उन लोगों के अलावा आज के इस अभियान की सफलता का कुछ श्रेय मैं पुलिस विभाग के उस अधिकारी को भी ज़रूर देना चाहूँगी जिसने सदय होकर मेरी समस्या को सुना, उस पर ध्यान दिया और उसके निराकरण के लिये मेरी सहायता भी की ! ऐसा नहीं है कि विदेशों में ही हेल्प लाइन्स काम करती हैं ! हमारे देश में भी कभी-कभी जब समस्या सही कानों में पड़ जाती है तो उसका निदान भी संभव हो जाता है ! मैं हृदय से उन लोगों की आभारी हूँ और अपना धन्यवाद ज्ञापित करना चाहती हूँ ! जय भारत ! जय हिन्दुस्तान !

साधना वैद