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Tuesday, July 28, 2015

सपने


रफ्ता-रफ्ता सारे सपने पलकों पर ही सो गये ,
कुछ टूटे कुछ आँसू बन कर ग़म का दरिया हो गये !

कुछ शब की चूनर के तारे बन नज़रों से दूर हुए ,
कुछ घुल कर आहों में पुर नम बादल काले हो गये !

कुछ बन कर आँसू कुदरत के शबनम हो कर ढुलक गये ,
कुछ रौंदे जाकर पैरों से रेज़ा रेज़ा हो गये !

कुछ दरिया से मोती लाने की चाहत में डूब गये ,
कुछ लहरों ने लीले, कुछ तूफ़ाँ के हवाले हो गये !

कुछ ने उड़ने की चाहत में अपने पर नुचवा डाले ,
कुछ थक कर अपनी ही चाहत की कब्रों में सो गये !

कुछ गिर कर शीशे की मानिंद चूर-चूर हो बिखर गये ,
कुछ जल कर दुनिया की तपिश से रेत का सहरा हो गये !

अब तक जिन सपनों के किस्से तहरीरों में ज़िंदा थे ,
क़ासिद के हाथों में पड़ कर पुर्ज़ा-पुर्ज़ा हो गये !

अब इन आँखों को सपनों के सपने से डर लगता है ,
जो बायस थे खुशियों के रोने का बहाना हो गये !


साधना वैद

Sunday, July 19, 2015

जीने की वजह

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जीने की वजह

पहले थीं कई

अब जैसे कोई नहीं !

बगिया के रंगीन फूल,

और उनकी मखमली मुलायम पाँखुरियाँ !

फूलों पर मंडराती तितलियाँ,

और उनके रंगबिरंगे सुन्दर पंख !

बारिश की छोटी बड़ी बूँदें,

और टीन की छत पर

सम लय में उनके गिरने से

उपजा संगीत !

खिड़की के शीशों पर बहती

बूँदों की लकीरें,

और उन लकीरों पर उँगली से लिखे

हमारे तुम्हारे नाम !

नंगे पैरों नर्म मुलायम दूब पर

बहुत हौले-हौले चलना,

और हर कदम के बाद

मुड़ कर देखना

कहीं दूब कुचल तो नहीं गयी !

आसमान में उमड़े श्वेत श्याम  

बादलों की भागमभाग,

और गगनांगन में चल रहे   

इस अनोखे खेल का स्वयं ही

निर्णायक हो जाना !

बारिश के बाद खिली धूप 

और आसमान में छाया सप्तरंगी इन्द्रधनुष

चाँद सूरज के साथ पहरों बतियाना,   

और उनकी रुपहली सुनहरी किरणों को

उँगलियों में रेशम के धागों की तरह

लपेटने की कोशिश में जुटे रहना !

संध्या के सितारे,

पत्तों पर ठहरी ओस की बूँदें,

मंद समीर के सुरभित झोंकों से

मर्मर करते पेड़ों के हर्षित पत्ते, 

रंग बिरंगी उड़ती पतंगें 

झर-झर झरते झरने,

कल-कल बहती नदियाँ,  

हिमाच्छादित पर्वत शिखर,

आसमान में उड़ते परिंदे,

पेड़ों की कोटर से झाँकते नन्हे-नन्हे पंछी 

और सुबह सवेरे उनका सुरीला कलरव

कितना कुछ था जीवन में

जो कभी अकेला होने ही नहीं देता था !

अब भी शायद है यह सब कुछ

यहीं कहीं आस पास

लेकिन शायद मैं ही इन्हें

मह्सूस नहीं कर पाती 

नहीं जानती

यह जीवन से वितृष्णा का प्रतीक है

यह फिर उम्र के साथ अहसास भी

वृद्ध हो चले हैं कि अब

जीने की कोई वजह ही

नज़र नहीं आती !



साधना वैद










Monday, July 6, 2015

विनती सुनो मोरी ( बाल गीत )





तिनका-तिनका चुन कर मैंने
एक बनाया सुन्दर नीड़
नोंच-नोंच कर फेंका तुमने
और बढ़ाई मेरी पीर !

मेरा सुख संसार रौंद कर
बोलो तुम क्या पाओगे ,
मेरे बच्चों के रोदन से
क्या तुम पिघल न जाओगे ?

काठ काँच के नकली पंछी
क्यों तुमको ललचाते हैं
उनके नकली रूप रंग से
क्यों सब भरमा जाते हैं ! 

घर के हर कोने-कोने में
उन्हें सजा कर रखते हो’
लेकिन जीवित विहग वृन्द को
दूर भगाते रहते हो ! 

है तुमको यदि प्यार प्रकृति से  
हमको भी बस जाने दो
अपने घर आँगन में हमको
जी भर कर कुछ गाने दो ! 

द्विगुणित हो जायेगी शोभा
खिल जाएगा घर संसार
मेरी मधुरिम स्वर लहरी से
होगा प्राणों में संचार ! 

सर्वश्रेष्ठ रचना हो प्रभु की
फिर क्यों छोटा हृदय प्रदेश
वृहद् विशाल तुम्हारे घर में  
वर्जित है क्यों हमें प्रवेश ?

साधना वैद