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Tuesday, March 28, 2017

“तो क्या हुआ मिन्नी......”--- लघु कथा







“तो क्या हुआ मिन्नी......”
नन्हा समर सुबकती हुई अपनी छोटी बहन को बड़े प्यार से गोदी में समेटने का प्रयास कर रहा था और बातों से उसका जी बहलाने की कोशिश कर रहा था,
“तो क्या हुआ मिन्नी जो नदी में बाढ़ आ गयी और सारा गाँव उसमें बह गया मैं तो हूँ ना तेरे पास तेरा ख़याल रखने के लिए ! मैं तेरा बहुत ध्यान रखूँगा ! हम दोनों राघव काका के पास चलेंगे ! वो तो कितना प्यार करते हैं हम दोनों से !”
“तो क्या हुआ मिन्नी जो मेरे हाथ छोटे-छोटे हैं ! बाबा ने सिखाया था कभी किसीके आगे हाथ मत फैलाना ! मैं राघव काका के चाय के ठेले पे कप धो दिया करूँगा और तेरे लिए ब्रेड ले आया करूँगा ! हम दोनों मिल कर चाय ब्रेड खाया करेंगे ! ठीक है ना ?”
“तो क्या हुआ मिन्नी जो बाढ़ के संग हमारे माँ, बाबा, घर, सामान सब बह गया ! मुझे अभी भी वो लोरी याद है जो माँ हम दोनों को सुलाते समय गाया करती थी ! मैं रोज़ रात को तुझे वह लोरी सुनाया करूँगा और तू सो जायेगी !”
“तो क्या हुआ मिन्नी जो हमारे पास किताबें खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं ! मैं तुझे स्कूल की क्लास के बाहर ले जाया करूँगा और तू टीचर जी की आवाज़ सुन कर बाहर से ही सारी कवितायें और सबक सीख लेना !”
“तो क्या हुआ मिन्नी........”
नन्हा समर अपनी छोटी बहन को दुनिया की हर वो खुशी देना चाहता था जिसकी वह हकदार थी ! माता-पिता को खोने के बाद अनायास ही वह बड़ा जो हो गया था !
सबसे विकराल प्रश्न जो उसके नन्हे से मस्तिष्क को विचलित कर रहा था वह यही था कि इतने बड़े संसार में अपनी अबोध बहन के साथ वह जीवित कैसे रहेगा !


साधना वैद


 

Tuesday, March 21, 2017

परीक्षा





पास या फेल

मेहनत का फल

मिल जाएगा


पास हो जाते

खूब मन लगा के

जो पढ़ लेते
  

चाय के प्याले

औ’ वक्ती रतजगे

काम न आये


एक ही चिंता

क्या पढ़ें क्या छोड़ दें

कल है पर्चा


जादू हो जाए

याद जो किया वही

पर्चे में आये


बच्चे हैरान

कब होंगे खतम

ये इम्तहान


हे भगवान 
लगाओ बेड़ा पार 
करो कल्याण 



साधना वैद
  

Thursday, March 16, 2017

बाप का साया




आज कमला के हाथ कुछ ज्यादह ही तेज़ी से चल रहे थे ! वैसे भी वह बहुत फुर्तीली है इसमें कोई संदेह नहीं !
“क्या बात है कमला कहीं जाना है क्या ? आज तो तुम्हारा झाडू पोंछा बर्तन कपडे सारे काम आधे घंटे में ही निबट गए ! ठीक से किये भी हैं या ऐसे ही बेगार टाल दी है ?” मेरी आवाज़ में असंतोष झलक रहा था !
“कैसी बात करती हो दीदी ! आप खुद ही देख लो न ! सारा घर चकाचक चमक रहा है ! मैंने दो घर और पकड़ लिए हैं दीदी ! इतनी मंहगाई में दो तीन घरों के काम से गुज़ारा नहीं होता ! फिर आज मुझे बाज़ार भी जाना है ! होली के त्यौहार पर बेटी दामाद घर आयेंगे तो कुछ तैयारी तो करनी पड़ेगी ! बडकी की शादी के बाद की पहली होली है तो उसके सासरे में भी उसके सास ससुर देवर जेठ के लिए कपडे, कचरी, पापड, बड़ी, मंगौरी, फल, मिठाई भेजनी पड़ेगी ! उसका भी इंतजाम करना है नहीं तो ससुराल में उसे सबकी बातें सुननी पड़ेंगी ! दोनों लड़कों की स्कूल की फीस भरनी है ! नए क्लास में आ जायेंगे तो कॉपी किताबें भी खरीदनी पड़ेंगी ! आप ही बताओ और काम नहीं करूंगी तो कैसे इतने खर्चे पूरे होंगे !”
कमला का रेकॉर्ड चालू हो गया था !
“क्यों तुम्हारा घरवाला कुछ भी नहीं कमाता क्या ? सारी जिम्मेदारी तुम्हारी ही है ? वह भी तो कारखाने में काम करता है ना ?” मुझे गुस्सा आ रहा था !
“कमाते क्यों नहीं हैं ! खूब अच्छे पैसे मिलते हैं उन्हें ! लेकिन घर खर्च के लिए कभी सौ रुपये भी नहीं दिए ! सारे पैसे दारू और जूए में कहाँ खर्च हो जाते हैं ये तो वो ही जाने ! उलटे मुझसे ही माँग कर ले जाते हैं ! मना कर दूँ तो रोज़ कलेस हो घर में !”
“अरे तो क्यों उसका पल्लू थामे बैठी हो ! पीछा छुडाओ उससे अपना !” मैं उत्तेजित होकर बोली !
“कैसी बातें कर रही हो दीदी ?” कमला का चेहरा बेरंग हो उठा था ! “वो जैसे भी हैं मेरे सारे तीज त्यौहार चूड़ी, बिंदी, सिन्दूर, बिछुआ सब उन्हीं से तो हैं दीदी ! घर में पैसे नहीं देते तो न सही पर बच्चों के सर पर बाप का साया तो है !”
अब अवाक होने की बारी मेरी थी !

साधना वैद

Sunday, March 12, 2017

होली





        होली पर्व की सभी पाठकों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें ! 

खेले प्रकृति

रंगीन फूलों संग

धरा से होली 


सूरज चन्दा

स्वर्ण रजत रंग

घोलें झील में


सूरज खेले

वसुधा संग होली

भोर की लाली


उड़ा गुलाल

लाल हुआ क्षितिज

रवि रंग में



मैं तो डालूँगी

कन्हैया जो आएगा

        रंग डालूँगी        


फेंकूँगी रंग

उड़ाऊँगी गुलाल

सुख वारूंगी


धरूँगी थाल

प्रेम रस से पगी

गुजियों भरा


खायेंगे श्याम

जियूंगी हर पल

सुख से भरा


रसोईघर

गृहणी का आसन

होली का पर्व


घर की होली

पकवानों की गंध

रंगों की धार


भाये न होली

न रंग न गुलाल

आ जाओ श्याम



शुभ कामना 

होली का यह पर्व 
सुख से मने 



साधना वैद


Wednesday, March 8, 2017

सुमित्रा का संताप


नहीं समझ पाती, जीजी,
रक्ताश्रु तो मैंने भी
चौदह वर्ष तक तुमसे
कम नहीं बहाए हैं
फिर मेरे दुःख को कम कर
क्यों आँका जाता है ,
केवल इसीलिये कि
मैं राम की नहीं
लक्ष्मण की माँ हूँ
मेरे अंतर के व्रणों को
हृदयहीनता के स्थूल आवरण
के तले मुँदी हुई पलकों से
क्यों झाँका जाता है ?
बोलो जीजी
पुत्र विछोह की पीड़ा
क्या केवल तुमने भोगी थी ?
मैंने भी तो उतने ही
वर्ष, मास, सप्ताह, घड़ी, पल
पुत्र दरस का स्वप्न
आँखों में लिए
तुम्हारी परछाईं बन
तुम्हारे साथ-साथ ही काटे थे ना
फिर मेरी पीड़ा तुम्हारी पीड़ा से
बौनी कैसे हो गयी ?
वैधव्य का अभिशाप भी
अकेले तुमने ही तो नहीं सहा था ना
मैंने भी तो उस दंश की चुभन को
तुम्हारे साथ-साथ ही झेला था !
मेरे सुख सौभाग्य का सूर्य भी तो
उसी दिन अस्त हो गया था
जिस दिन कैकेयी की लालसा, ईर्ष्या
और महत्वाकांक्षा का मोल
महाराज दशरथ को
अपने प्राण गँवा कर
चुकाना पड़ा था !
फिर सारा विश्व कौशल्या की ही
व्यथा वेदना से आकुल व्याकुल क्यों है
क्या मेरी व्यथा वेदना किसी भी तरह
तुमसे कम थी ?
जीजी, राम की
भौतिक और भावनात्मक
आवश्यकताओं के लिये तो
उनकी संगिनी सीता उनके साथ थीं
लेकिन मेरे लक्ष्मण और उर्मिला ने तो
चौदह वर्ष का यह वनवास
नितांत अकेले शर शैया
की चुभन के साथ भोगा है !
वियोगिनी उर्मिला के
जीवन में पसरे तप्त मरुस्थलों की
शुष्कता, तपन और सन्नाटों की
भाषा को मैंने शब्द-शब्द पढ़ा है ,
और किसी भी तरह उन्हें
कम ना कर सकने की
अपनी लाचारी के आघात
को भी निरंतर अपने मन पर झेला है
फिर मेरी पीड़ा का आकलन
यह संसार कम कैसे कर लेता है ?
मेरा दुःख गौण और बौना
क्या सिर्फ इसीलिये हो जाता है
कि मैं मर्यादा परुषोत्तम राम
की माँ कौशल्या नहीं
उनके अनुज लक्ष्मण
की माँ सुमित्रा हूँ ?

साधना वैद

Thursday, March 2, 2017

फागुन आया






 धीमी आहट

छलका मधु घट

आया बसंत


प्रतीक्षा रत

विरहिणी नायिका

नैन बिछाये


खिली कलियाँ

भ्रमर गीत गाते

छाया बसंत


हर कलिका

करती अभिसार

वारे पराग


दूँ मैं दुहाई 
   
मधु ऋतु है आई

आनंद लाई


छाया बसंत

घर आओ ना कंत

मैं देखूँ पंथ


उड़ चला है

बसंत संग दिल

कहाँ मानेगा


खोया बेसुध

प्रिय की स्मृतियों में

दीवाना दिल


लागे न जिया

फागुन का महीना

आ जाओ पिया


कोरी चूनर

भीगने को आतुर

प्रेम रंग में


कैसे बचोगे

मेरी पिचकारी से

बोलो कन्हैया


होके अधीर

रंग डालूँगी भीर

कालिंदी तीर



साधना वैद