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Thursday, September 28, 2017

अधिक उत्पादन – जी का जंजाल – क्या करे किसान



अर्थ शास्त्र का सिद्धांत है कि यदि किसी वस्तु का उत्पादन माँग से अधिक होने लगता है तो उसकी कीमत गिर जाती है और उत्पादक को हानि होने लगती है ! अधिक उत्पादन की मार का असर अनेक वस्तुओं पर समय-समय पर दिखाई देता रहता है ! कभी गन्ने की फसल खेत में ही इसीलिए जला दी जाती है कि खेत में उनकी कटाई तक का मूल्य बिक्री करने पर नहीं निकल पाता है ! कभी प्याज़ लहसन की कीमत इतनी गिर जाती है कि किसान उन्हें सड़क पर फेंक देना ही उचित समझते हैं ! आगरा के क्षेत्र में आलू के किसान इस वर्ष इसी समस्या को झेल रहे हैं ! आइये आलू की इस दुर्दशा का कुछ अध्ययन करें !

कई वर्ष पहले देश की आलू की पैदावार आवश्यकता से कम थी ! आलू उत्पादकों को लागत का पाँच से सात गुना तक मूल्य मिल रहा था ! आगरा का आलू गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार आदि प्रान्तों में हाथों हाथ बिक रहा था ! रातों रात सब किसान जो पहले सरसों, बाजरा, दलहन और गेहूँ की खेती करते थे आलू उत्पादक बन गए ! पूँजीपतियों ने भी इस क्षेत्र में कोल्ड स्टोरेज की कतार लगा दी और लाभ की बहती गंगा में हाथ धोने लगे जो स्वाभाविक भी है पर जिन राज्यों में आगरे का आलू मँहगा बिक रहा था वहाँ के किसान भी आखिर कुछ तो सोच विचार करते ही हैं ! उन्होंने भी अपने क्षेत्रों में प्रयोग के लिए आलू उगाये और आज स्थिति यह है कि आज से लगभग १७५ वर्ष पूर्व जो आलू के बीज अंग्रेजों द्वारा बाहर से लाकर ठन्डे पहाड़ी क्षेत्र में बोये गए और यह मान लिया गया कि यही ठंडा क्षेत्र इस की फसल के लिए उपयुक्त है उसके नए बीजों के कमाल से और भारतीय किसानों की अथक मेहनत से आलू अब पंजाब से लेकर बंगाल तक और हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक हर तरह की जलवायु और मिट्टी में बोया जा रहा है और उसकी भरपूर फसल भी मिल रही है ! खुशी की बात है ना ? लेकिन वास्तव में यह बात खुशी की नहीं वरन दुःख की है क्योंकि अधिक उत्पादन की वजह से आलू की फसल की कीमत लगातार घट रही है और किसान बड़े घाटे में जा रहा है !

आखिर गेहूँ की उपज करने वाला किसान गेहूँ को छोड़ आलू के उत्पादन में क्यों लग गया ? कारण वही है गेहूँ का आवश्यकता से कहीं अधिक उत्पादन ! जो लोग ट्रेन या सड़क मार्ग से उत्तरी भारत की यात्रा करते रहते हैं उन्होंने खुले आसमान के नीचे मात्र जर्जर त्रिपाल से ढके जगह-जगह खेतों में पड़े हुए गेहूँ के बोरों के पहाड़ अवश्य देखे होंगे ! यह वह समय था जब सरकार समर्थन मूल्य पर किसानों का सारा गेहूँ खरीद लेती थी जो उस वक्त की स्थिति के अनुरूप किसान के लिए बहुत सुविधाजनक था ! किसान आलू दलहन और तिलहन को छोड़ तब गेहूँ उत्पादन में लग गए ! अधिक उत्पादन से खुले बाज़ार में गेहूँ की कीमत गिरने लगी लेकिन सरकारी समर्थन मूल्य के सहारे किसान का काम चलता रहा और अनावश्यक गेहूँ खुले में जमा होता रहा, फिर सड़ता रहा और फेंका जाता रहा ! पर सरकार के पास तो टैक्स का पैसा होता है वह घाटा झेलती रही पर समर्थन मूल्य भी घटाती रही ! आज गेहूँ का समर्थन मूल्य बाज़ार भाव से भी कम हो चुका है इसलिए सरकारी खरीद ना के बराबर हो चुकी है और पंजाब जैसे गेहूँ के क्षेत्र वाले किसान भी अब चावल और आलू की तरफ उन्मुख हो चुके हैं ! पर इस आपाधापी में पहले दलहन का क्षेत्र कम हुआ और दालों की कीमत आसमान पर जा पहुँची ! अब जाकर किसानों ने जब दलहन का उत्पादन बढ़ाया और आयात का भी सहारा मिला तब दालों की कीमत में कुछ कमी आई है ! आज स्थिति यह है कि हमारा गेहूँ का, चावल का, आलू का उत्पादन देश की आवश्यकता से कहीं ज्यादह है ! 

हम इस वास्तविकता को मानने को अभी तैयार नहीं हैं कि हमारे देश की कुल कृषि योग्य भूमि और उस पर काम करने वाली मानव शक्ति ( मैन पावर ) उस उत्पादन में लगी है जिसकी पूरी खपत अपने देश में नहीं है ! चावल और गेहूँ भारत को मजबूरी में लागत से कम कीमत पर निर्यात करना पड़ रहा है ! कुछ लोग कहेंगे कि सरकार इस अतिरिक्त उत्पाद को अति निर्धन लोगों को मुफ्त में क्यों नहीं बाँट देती ! बाँटने के लिए जितने साधन चाहिए उनकी देश में भारी कमी है !

ऐसे ईमानदार अधिकारी और नेता जो सही पात्र को पहचान सकें और इस सहायता को अपात्रों तक पहुँचने से रोक सकें !

जागरूक और इमानदार मीडिया जो अति निर्धन लोगों को इस सुविधा की सूचना दे सके और उनको इस पाइप लाइन के उस सिरे तक पहुँचा सके जहाँ यह मुफ्त बँट रहा हो !

ऐसा ईमानदार और प्रभावी पुलिस बल जो उन पाइप लाइनों की चोरी और लूटमारी से रक्षा कर सके जिनके माध्यम से यह सुविधा प्रदान की जा रही है !

ज़रा सोचिये क्या यह संभव है और इसकी लागत क्या आयेगी ? इसको चोरों और जमाखोरों से कैसे बचाया जाएगा जो पहले से ही इन धंधों के कारण मालामाल हो रहे हैं अर्थात फ्री में बाँटना न तो संभव है ना ही इस समस्या का पूरा हल है ! फिर फ्री बाँटने से तो बाज़ार की कीमतें और गिरेंगी और हमारा ‘अन्नदाता’ किसान और मुसीबत में आ जाएगा !

इस समस्या के हल के लिए सबसे पहले हमको अपनी इस सोच को बदलना पड़ेगा कि भारत में खेती करना ही सबसे उत्तम व्यवसाय है और ग़रीब सा दिखने वाला एवं अनेक साधनों से वंचित यह ‘अन्नदाता’ किसान देश की शान है जो बहादुर सिपाहियों की तरह सीमा पर गोली न खाते हुए भी अपनी जान कभी बीमारी से, कभी भुखमरी से और कभी चरम हताशा के कारण आत्महत्या करके दे देता है ! उसे बताया जाता है कि यह धरती तुम्हारी माँ है और यदि तुम इससे दूर हो गए तो आने वाली तुम्हारी पीढ़ियाँ भूमिहीन हो जायेंगी और फिर उनका कोई भविष्य नहीं रहेगा ! लगे रहो इसी भूमि पर ! बने रहो ग़रीब ! मरते हो तो मरते रहो पर तुम्हारा व्यवसाय तो गौरवशाली है ! लोग तो तुम्हें ‘अन्नदाता’ मानते हैं ! तुम ज़मींदार हो ! ज़रा कल्पना कीजिये फटे हाल क़र्ज़ में डूबे, हताशा के मारे इन ‘अन्नदाता ज़मीदारों’ की कैसी अद्भुत वंशावली चली आ रही है जो मुंशी प्रेमचंद के ज़माने से अभी तक उसी हाल में जीने के लिए मजबूर हैं !

पश्चिम बंगाल में जब वामपंथी सरकार थी तब उनके एक समझदार मुख्यमंत्री ने इस समस्या को समझा और किसानों को अधिक चावल के उत्पादन से रोकने के लिए उन्हें अपनी कुछ ज़मीन को बड़े उद्योगों के लिए बेच कर अपनी ग़रीबी दूर करने और जीवन यापन के नए तरीके अपनाने के लिए मनाया ! लेकिन मने मनाये किसानों को जब यह बताया गया कि ऐसे तो तुम ‘अन्नदाता ज़मींदार’ से कारखाने के मजदूर बन जाओगे तो वे भड़क उठे और एक बहुत बड़े उद्योगपति को अपना कारखाना लगाने के लिए बंगाल को छोड़ गुजरात जाना पड़ा !

आज वही किसान अपनी ग़रीबी लिए और समझाने वालों के द्वारा पहनाये गए सूखे हार पहने हुए सोच में डूबा खड़ा है कि मेरे लिए क्या ठीक था और क्या ग़लत ! खैर आइये फिर आलू की फसल पर आते हैं !

ज़रुरत से ज्यादह आलू उत्पादन के क्षेत्र में कमी करनी होगी !
अदल बदल कर कभी तिलहन कभी दलहन और कभी गेहूँ और कभी आलू की खेती करनी होगी जिसके लिए उन्हें उचित समय पर बाज़ार की सही जानकारी उपलब्ध करानी होगी !

यह पुराने अनुभवी सभी किसान जानते हैं कि बदल-बदल कर अलग फसल बोने से भूमि की उर्वराशक्ति तो बढ़ती ही है खाद आदि के खर्च में भी कमी आती है !

किसानों की कुछ भूमि को ऐसे उद्योग में लगाने के लिए उपयोग में लाना होगा जिससे उस क्षेत्र के लोगों को रोज़गार मिल सके !

आज का किसान विशेष रूप से आलू बोने वाला किसान अपने खेत पर केवल पार्ट टाइम कर्मचारी बन कर काम करता है ! अपने खाली समय को वह दो तरह से खर्च करता है ! समझदार लोग तो आस पास के शहरों के कारखानों में काम कर अपनी आमदनी बढ़ा लेते हैं लेकिन नादान किसान शराब, जूए और व्यर्थ के झगड़ों और मुकदमेबाजी में समय खपा देते हैं ! यह समझ में आ जाना चाहिए कि आवश्यकता से अधिक उत्पादन दुखदायी ही होता है ! ज़रा सोच कर देखिये क्या यही स्थिति इन दिनों आई टी क्षेत्र के एक्सपर्ट्स की नहीं हो रही है ? क्या अधिक उत्पादन की मार वे नहीं झेल रहे हैं ! यह भी एक विचारणीय विषय है लेकिन इसकी चर्चा फिर कभी सही !



साधना वैद  


Wednesday, September 27, 2017

मैं ग़रीब हो गया



मेरे मौला
तूने तो मालामाल किया था मुझे
प्यार की दौलत से
मोहब्बत की दौलत से
इल्म और इखलाक की दौलत से
इंसानियत की दौलत से  
मैंने ही कभी कद्र न की उसकी
मुफ्त जो मिल गयी थी
भागता रहा काग़ज़ की दौलत के पीछे
सिक्कों की खनखनाहट के पीछे
कितने जतन किये उसे पाने के लिए
कितनी कड़ी मेहनत की
कितने सारे इम्तहान दिए
मेहनत रंग लाई तो
कुछ कमाया भी ज़रूर
लेकिन इस कमाई की जद्दोजहद में
बहुत कुछ गँवा भी दिया
वह अनमोल दौलत जिससे तूने मुझे
भर हाथों नवाज़ा था
मेरे हाथ से फिसल गयी !
इंसानियत की दौलत
स्नेह और सौहार्द्र की दौलत
प्रेम और संवेदनशीलता की दौलत
मानवीयता की दौलत  
और मैं बन गया 
एक खुरदुरा इंसान
नितांत स्वार्थी, संकीर्ण, 
आत्म केन्द्रित और अहंकारी इंसान
जिसे सिर्फ खुद से प्यार करना आया
जिसका दिल जिसकी आत्मा
कभी किसीके भी दुःख से
ज़रा भी नहीं पसीजते  
कड़वे शब्द जिसके मुख से
झरने की तरह बहते हैं
मैं बन कर रह गया
सिर्फ और सिर्फ 
एक खोखला इंसान
जिसका कोई मोल नहीं
कोई इज्ज़त नहीं
और इतने बड़े संसार में
शायद जिसकी 
    कोई ज़रुरत भी नहीं !    
मेरे मौला
मैं ग़रीब हो गया !


साधना वैद  


Friday, September 22, 2017

ज़रा ठहरो




ज़रा ठहरो ! 
तुम इनको न छूना, 
ये एक बेहद पाकीजा से रिश्ते के 
टूट कर बिखर जाने से 
पैदा हुई किरचें हैं जिन्हें छूते ही 
धारा प्रवाह खून बहने लगता है , 
डरती हूँ तुम्हारे छू लेने से 
कहीं इनकी धार कुंद ना हो जाए, 
अगर इनकी चुभन से लहू ही ना बहा
तो इनकी सार्थकता क्या रह जायेगी !

ज़रा ठहरो !
तुम इनको ना मिटाओ, 
ये मेरे मन के कैनवास पर 
उकेरे गये मेरे अनन्य प्रेम की 
मोहक तस्वीरों को बिगाड़ कर 
खरोंचने से बने बदनुमा धब्बे हैं 
अगर ये मिट गए तो मेरे तो 
जीने का मकसद ही खत्म हो जाएगा,
जब 'देखो, ढूँढो पहचानो' का खेल
ही खत्म हो जाएगा तो फिर मैं 
इस कैनवास में क्या ढूँढ पाउँगी 
और मुझे कैसे चैन आएगा ! 

ज़रा ठहरो !
तुम इनको ना समेटो, 
ये मेरी अनकही, अनसुनी
अनभिव्यक्त उन प्रेम पातियों के 
फटे हुए टुकड़े हैं जो कभी 
ना भेजी गयीं, ना ही पढ़ी गयीं
लेकिन आज भी मैं दिन भर में
मन ही मन ना जाने कितनी बार 
इन्हें दोहराती हूँ और जो आज भी 
मेरे जीने का संबल बनी हुई हैं ! 

ज़रा ठहरो !
अब जब तुम आ ही गए हो
तो मेरे इस अनमोल खजाने 
को भी देखते जाओ
जिसमें एक पाकीजा सी मोहब्बत की 
चंद यादें, चंद खूबसूरत तस्वीरें,
ढेर सारे आँसू, ढेर सारी चुभन 
चंद फटे खत और पुरानी डायरी के 
जर्जर पन्नों पर दर्द में डूबी
बेरंग लिखावट में धुली पुछी 
चंद नज्में मैंने सहेज रखी हैं !
इन्हें जब जब मैं बहुत हौले से 
छू लेती हूँ, सहला लेती हूँ 
तो इनका स्पर्श मुझे याद दिला देता है 
कि मैं आज भी ज़िंदा हूँ और 
मेरा दिल आज भी धड़कता है ! 

साधना वैद

चित्र - गूगल से साभार 

Sunday, September 17, 2017

बस ! अब और नहीं ---



वक्त और हालात ने
इतने ज़ख्म दे दिए हैं
कि अब हवा का
हल्का सा झोंका भी
उनकी पर्तों को बेदर्दी से
उधेड़ जाता है
मैं चाहूँ कि न चाहूँ
मेरे मन पर अंकित
तुम्हारी पहले से ही
बिगड़ी हुई तस्वीर पर 
कुछ और आड़ी तिरछी
लकीरें उकेर जाता है !
मन आकंठ दर्द में डूबा है
हर साँस बोझिल हुई जाती है
ऐसे में तुम्हारी जुबां से निकला
हर लफ्ज़ जाने क्यों
पिघले सीसे सा कानों में
उतर जाता है
और मेरे अंतर्मन की  
बड़े जतन से संजोई हुई
थोड़ी सी हरियाली को
तेज़ाब जैसी बारिश से
निमिष मात्र में ही
झुलसा जाता है !
यह इंतहा है
मेरे धैर्य की,
यह इंतहा है  
मेरी बर्दाश्त की
और यह इंतहा है
मेरी दर्द को सह जाने की
अदम्य क्षमता की !
बस ! अब और नहीं,
अब और बिलकुल भी नहीं !
अब यह ज्वालामुखी
किसी भी वक्त
फट सकता है !
जो बचा सकते हो
समय रहते बचा लो
काल के किसी भी अनजान,
अनचीन्हे, अनपेक्षित से पल में
अकस्मात ही अब
कुछ भी घट सकता है
फिर न कहना मैंने
समय रहते पहले ही
चेताया क्यों नहीं !

साधना वैद
  


Monday, September 11, 2017

हम और तुम




वर्षों से भटक रहे थे हम तुम 
ज़िंदगी की इन अंधी गलियों में 
कुछ खोया हुआ ढूँढने को 
और मन प्राण पर सवार 
कुछ अनचाहा कुछ अवांछित 
बोझ उतार फेंकने को !
थके हारे बोझिल कदमों से 
जब घर में पैर रखा तो 
अस्त व्यस्त बिखरे सामान से 
टकरा कर औंधे मुँह गिरे !
चोट लगी, दर्द भी हुआ 
तभी यह ख़याल आया 
आज बहुत करीने से 
कमरे की हर चीज़ को सँवार देंगे 
कमरे के बाहर का बरामदा 
बरामदे के आगे का बागीचा 
सब बिलकुल व्यवस्थित कर 
शीशे सा चमका देंगे ! 
एक दूसरे को बता कर 
हम दोनों अपने-अपने घर की 
सफाई में जुट गए ! 
और देखो मेहनत रंग ले आई 
हम दोनों को ही अपनी 
खोयी हुई चीज़ें मिल गयीं ! 
मुझे बगीचे के सबसे 
निर्जन कोने में पड़ी बेंच पर 
सूखे पत्तों के नीचे दबी ढकी 
मेरी सबसे कीमती 
सबसे अनमोल उपलब्धि मिल गयी 
जिसे शायद कभी बेध्यानी में 
या बहुत ही अनमने पलों में 
मैं गलती से वहाँ छोड़ आई थी ! 
बड़े जतन से सहेज कर उसे मैं 
घर के अन्दर ले आई ! 
और अपने उर अंतर के 
सबसे निजी कोने में 
जीवन भर के लिए मैंने 
उसे सुरक्षित कर लिया !
मेरी तलाश पूरी हो गयी थी !
उसी दिन वहाँ अपने घर में 
तुम्हारी तलाश भी पूरी हुई थी !
तुमने ही तो बताया था मुझे !
अपने कमरे की सफाई में 
तुम्हें भी पुरानी जर्जर किताबों की 
अलमारी में कहीं दबा पड़ा
वह सामान मिल गया था 
जिसका वजूद, जिसका अहसास 
वर्षों से तुम्हारी आत्मा, 
तुम्हारी चेतना पर एक भारी 
शिला की तरह पड़ा हुआ था ! 
उसे अपने हृदय से उतार तुम 
मुक्ति की साँस लेना चाहते थे 
स्वयं को उससे उन्मुक्त कर 
पूर्णत: स्वछन्द हो आसमान में 
ऊँचे खूब ऊँचे उड़ना चाहते थे ! 
तुम्हारी चाह भी पूरी हुई 
एक पल भी गँवाए बिना 
तुमने उस अवांछनीय वस्तु को 
झाड़ कर अपने घर से 
बाहर कर दिया और कबाड़ की 
कोठरी में फेंक दिया !
अब तुम्हारी आत्मा भी निर्बंध है 
तुम्हारी चेतना पर कोई बोझ नहीं है ! 
जान तो गए हो ना ! 
वो कुछ हमारी यादें थी 
कुछ हमारी चाहतें थीं जिन्हें 
मैंने बड़े प्यार से 
अपने अंतर में संजो लिया 
और तुमने बड़ी बेरहमी से 
उन्हें दिल के बाहर कर दिया ! 
अच्छा ही तो है 
काँटा निकला पीर गयी !




साधना वैद

Sunday, September 3, 2017

गुरू और शिष्य

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शिक्षक दिवस पर विशेष

गुरू रहे ना देव सम, शिष्य रहे ना भक्त
बदली दोनों की मती, बदल गया है वक्त !

शिक्षक व्यापारी बना, बदल गया परिवेश
त्याग तपस्या का नहीं, रंच मात्र भी लेश !

बच्चे शिक्षक का नहीं, करते अब सम्मान
मौक़ा एक न छोड़ते, करते नित अपमान !

कहते विद्या दान से, बड़ा न कोई दान  
लेकिन लालच ने किया, इसको भी बदनाम !

कोचिंग कक्षा की बड़ी, मची हुई है धूम
दुगुनी तिगुनी फीस भर, माथा जाये घूम !

साक्षरता के नाम पर, कैसी पोलम पोल
नैतिकता कर्तव्य को, ढीठ पी गए घोल !

सच्चे झूठे आँकड़े, भरने से बस काम
प्रतिशत बढ़ना चाहिए, साक्षरता के नाम !

कक्षा नौ में छात्र सब, दिए गए हैं ठेल
जीवन के संघर्ष में, हो जायेंगे फेल !

 ऐसी शिक्षा से भला, किसका होगा नाम !
लिख ना पायें नाम भी, ना सीखा कुछ काम !

करना होगा पितृ सम, शिक्षक को व्यवहार
रखें शिष्य भी ध्यान में, सविनय शिष्टाचार !

अध्यापक और छात्र में, हो न परस्पर भीत  
जैसे भगवन भक्त में, होती पावन प्रीत !

गुरु होते भगवान सम, करिए उनका मान 
विद्यार्थी संतान सम, रखिये उनका ध्यान !


साधना वैद