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Tuesday, January 30, 2018

उलझन



अभी तक समझ नहीं पाई कि 

भोर की हर उजली किरन के दर्पण में 
मैं तुम्हारे ही चेहरे का 
प्रतिबिम्ब क्यों ढूँढने लगती हूँ ?
हवा के हर सहलाते दुलराते 
स्नेहिल स्पर्श में
मुझे तुम्हारी उँगलियों की 
चिर परिचित सी छुअन 
क्यों याद आ जाती है ?
सम्पूर्ण घाटी में गूँजती 
दिग्दिगंत में व्याप्त 
हर पुकार की 
व्याकुल प्रतिध्वनि में 
मुझे तुम्हारी उतावली आवाज़ के 
आवेगपूर्ण आकुल स्वर 
क्यों याद आ जाते हैं ?
यह जानते हुए भी कि 
ऊँचाई से फर्श पर गिर कर 
चूर-चूर हुआ शीशे का बुत 
क्या कभी पहले सा जुड़ पाता है ? 
धनुष की प्रत्यंचा से छूटा तीर 
लाख चाहने पर भी लौट कर
क्या कभी विपरीत दिशा मे मुड़ पाता है ? 
वर्षों पिंजरे में बंद रहने के बाद 
रुग्ण पंखों वाला असहाय पंछी
दूर आसमान में अन्य पंछियों की तरह
क्या कभी वांछित ऊँचाई पर उड़ पाता है ?
मेरा यह पागल मन 
ना जाने क्यूँ 
उलझनों के इस भँवर जाल में
आज भी अटका हुआ है । 


साधना वैद

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